128. प्रतीहार का मूलधन प्रतीहार का नाम मेघमाली था । जयराज अपने सुसज्जित कक्ष में पड़े अनेक राजनीतिक ताने -बाने बुन रहे थे। इसी समय प्रतीहार ने द्वार खटखटाया । अनुमति पाकर वह अन्दर आया और बारम्बार प्रणाम करके विनीत भाव से बोला - “ भन्ते , आपका शौर्य और उदारता दोनों ही अद्वितीय है , मैं आपका सेवक सदैव आपकी सेवा में उपस्थित हूं । परन्तु इस समय मैं प्रार्थी हूं, आप मेरी सहायता कीजिए। " जयराज ने विस्मय को दबाकर कहा “ कह मित्र , मैं तेरी क्या सहायता कर सकता हूं ? " उसने कुछ क्षण रुककर कहा " मेरी स्त्री अति रूपवती है , वह चरित्र की भी उज्ज्वल है। दो वर्ष पूर्व मैंने उससे विवाह किया था । इसके लिए मेरा सब यत्न से संचित स्वर्ण भी खर्च हो गया । ससुराल से मुझे कुछ भी धन नहीं मिला। क्या कहूं , बड़ी विपत्ति में हूं। " जयराज हंसने लगे । हंसते - ही - हंसते उन्होंने कहा - " तो मित्र , ससुराल से धन अब कैसे मिल सकता है तथा मैं इसमें क्या सहायता कर सकता हूं ? " “विपत्ति कुछ और ही है भन्ते , " वह रुका । फिर कुछ खांसकर बोला - " भन्ते, वह कल रात से ही नहीं आई है । " “ रात से नहीं आई है! तब गई कहां ? " “ मेरा दुर्भाग्य है भन्ते , क्या कहूं, वह वणिक् सुखदास के पास गई थी । " " सुखदास कौन है? " “ एक दुष्ट विदेशी है भन्ते , वह बहुत - से सैन्धव अश्व और बहुत - से चीन देश के कौशेय वस्त्रों के जोड़े बेचने राजगृह आया है । मैंने उसे उसके पास एक सहस्र उत्तम अश्व और पांच सहस्र वस्त्रों के जोड़े खरीदने भेजा था , सम्राट युद्ध की तैयारी कर रहे हैं । मेरे पास कुछ निकम्मे अश्व थे। मैंने सोचा था , वे सब मिलाकर सम्राट् को बेच दूंगा । कुछ लाभ हो जाएगा। " “ पत्नी को वणिक के पास क्यों भेजा था , स्वयं क्यों नहीं गए ? " ___ “ ये वणिक बड़े लुच्चे हैं भन्ते , सुन्दरी और नवयुवती स्त्रियों को देखते ही पानी हो जाते हैं , सौदा ठीक से हो जाता है । मेरी पत्नी सुन्दरी भी है और चतुर भी है । उसके सुन्दर रूप और मधुर वचनों से प्रसन्न होकर ये वणिक सौदे में खींचतान नहीं करते । जितना मूल्य वह हंसकर दे देती है, वे हंसकर ले लेते हैं । " जयराज को इस व्यक्ति में आकर्षण प्रतीत हुआ । उसने मन की हंसी दबाकर कहा - " तो मित्र, तू अपनी पत्नी से दुहरा लाभ उठाता है ? " “ पर भन्ते , जितना स्वर्ण उसके लोभी पिता ने मुझसे लिया था , अभी उतना भी
पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४३६
दिखावट