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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४३९

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" उस स्त्री का , जिसको तूने कल खरीदा है। " सुखदास वणिक का मुंह सूख गया । उसने कहा - " कैसी स्त्री भन्ते ? " “ प्रतीहार - पत्नी रे , क्या मुझे चराता है! ”– जयराज ने व्याज - कोप से कहा । सुखदास थर - थर कांपने लगा । उसने कहा - “ दुहाई राजपुत्र , मैं निर्दोष हूं! " " पर तू जानता है, सम्राट तुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे , अभी तेरे बांधने को राजपुरुष आएंगे । वे तुझे ले जाकर सूली चढ़ा देंगे । " “ परन्तु वह स्वेच्छा से आई है भन्ते , अपने पति की अनुमति से । " " वे अश्व और चीनांशुक तो एक ही रात के शुल्क हैं न ? " “ यह सत्य है, परन्तु वह अब उस लोभी वृद्ध और कृपण प्रतीहार के पास नहीं जाना चाहती । भन्ते , उस सुशीला से वह पतित हठ करके कुकर्म कराता है । केवल उस दुष्ट के अधीन होने से वह वणिकों के पास जा क्रय-विक्रय करती है । अपने चित्त से अपने योग्य काम समझकर नहीं। उसके रूप और सौन्दर्य को उस पतित ने अपना मूलधन बनाया हुआ है। " " तो मित्र, मैं उस मूलधन को देखना चाहता हूं। " " तो उससे पूछकर कह सकता हूं कि वह आपसे मिलकर बात करना चाहेगी या नहीं। " " तो तू पूछ ले मित्र ! " वणिक भीतर चला गया । थोड़ी देर में उसने आकर कहा " चलिए भन्ते , वह आपसे मिलने को सहमत है। " जयराज ने भीतर जाकर एक सुसज्जित कक्ष में उसे खड़े देखा । उसकी अवस्था बीस -बाईस वर्ष की थी । वह अतिकमनीय रूपवती बाला थी , सौंदर्य और लावण्य सुडौल मुख और अंग - अंग से फूटा पड़ता था । लाल -लाल पतले होंठ और बड़ी - बड़ी नुकीली आंखें काम -निमन्त्रण- सा दे रही थीं । इस अप्रतिम सौन्दर्य - प्रतिमा के मुख पर निष्कलंकता और अभय की आभा देखकर जयराज पुलकित हो गए। प्रफुल्लित रक्तिम आभा से प्रदीप्त मुखमंडल पर मुस्कान सुधा बिखेरकर उसने कहा “ मैं आपका क्या प्रिय करूं , प्रिय? " उसके कोमल कण्ठ को सुनकर जयराज ने कहा - “ सुन्दरी, मैं तेरे पति का मित्र हूं और तुझे यहां से उसके पास ले चलने को आया हूं । तेरी - जैसी चरित्रवती रूपवती के लिए इस प्रकार पुंश्चली की भांति पर पुरुष का सेवन करना अच्छा नहीं है। " “ आप ठीक कहते हैं भन्ते राजकुमार, पर यह दूषित कार्य मैंने अपनी इच्छा से अपने विलास के लिए नहीं किया है । आप ही कहिए , जिस लोभी ने आपत्ति के बिना मुझे अन्य पुरुष के हाथ बेच डाला , उस सत्त्वहीन निर्लज्ज के पास अब मैं कैसे जाऊं ? मेरी भी एक मर्यादा है भन्ते , यदि मैं वहां जाती हूं, तो वह बार -बार मुझे ऐसे ही प्रयोगों में डालेगा । यहां मैं एक सुसम्पन्न सुप्रतिष्ठित और उदार पुरुष की सेवा में हूं, जिसने एक ही रात में पांच सौ अश्व और सहस्र जोड़े चीनांशुक दे डाले हैं । " जयराज ने उसकी स्थिति और यथार्थता का समर्थन किया । फिर उसने उठते हए सुखदास वणिक से कहा - “मित्र, तू यथेष्ट लाभ में रहा। स्मरण रख , सत्त्वहीन पुरुषों के पास