पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४७

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तीन वचनों वाला प्रथम उपासक हुआ।"

इसी समय कुलपुत्र यश पिता के सम्मुख आकर खड़ा हो गया, उसका मुख सत्य ज्ञान से देदीप्यमान था और उसका चित्त अलिप्त एवं दोषों से मुक्त था।

गृहपति ने पुत्र को देखकर दीन भाव से कहा—"पुत्र यश! तेरी मां शोक में पड़ी रोती है और पत्नी तेरे वियोग में मूर्च्छित है। अरे कुलपुत्र, तेरे बिना हमारा सब-कुछ नष्ट है।"

तथागत गौतम ने कहा—"श्रेष्ठि गृहपति, जैसे तुमने अपूर्व ज्ञान और अपूर्व साक्षात्कार से धर्म को देखा, वैसे ही यश ने भी देखा है। देखे और जाने हुए को मनन करके, प्रत्यवेक्षण करके उसका चित्त अलिप्त होकर मलों से शुद्ध हो गया है। सो गृहपति, अब यश क्या पहले की भांति गृहस्थ सुख भोगने योग्य है?"

"नहीं भन्ते!"

"गृहपति, इसे तुम क्या समझते हो?"

"लाभ है भन्ते, यश कुलपुत्र को। सुलाभ किया भन्ते, यश कुलपुत्र ने, जो कि यश कुलपुत्र का चित्त अलिप्त हो मलों से मुक्त हो गया। भन्ते भगवन्! यश को अनुगामी भिक्षु बनाकर मेरा आज का भोजन स्वीकार कीजिए।" भगवान् ने मौन स्वीकृति दी। सेट्ठि गृहपति स्वीकृति समझ आसन से उठ भगवान् गौतम को प्रणाम कर प्रदक्षिणा कर चले गए।

तब यश कुलपुत्र ने सम्मुख आ प्रणाम कर गौतम से कहा—"भन्ते भगवन्, मुझे प्रव्रज्या दें, उपसम्पदा दें!"

गौतम तथागत ने कहा—"भिक्षु, आओ, धर्म सुव्याख्यात है, अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो। तुम्हें उपसम्पदा प्राप्त हुई। अब इस समय तथागत सहित लोक में सात अर्हत हैं।"