पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४८

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9. धर्म चक्र-प्रवर्तन

काशियों में बड़ी उत्तेजना फैल गई। वाराणसी की वीथिका में लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि शाक्यपुत्र गौतम चीवर और भिक्षापात्र हाथ में लिए, नीचा सिर किए, अपने स्वर्ण समान दमकते हुए मुख को पृथ्वी की ओर झुकाए पांव-प्यादे जा रहे हैं। उनके पीछे-पीछे नगरजेट्ठक नगरसेट्ठि का कुलपुत्र यश उसी भांति सिर मुंडाए, नंगे पैर चीवर और भिक्षापात्र हाथ में लिए, नीची दृष्टि किए जा रहा है। किसी ने कहा—"अरे, यही वह शाक्य राजकुमार गौतम है, जिसने पत्नी, पुत्र, राज्यसुख सब त्याग दिया है। जिसने मार को जीता है, जिसने अमृत प्राप्त किया है, जो अपने को सम्पूर्ण बुद्ध कहता है।" कोई कह रहा था—"देखो, देखो, यही कुलपुत्र यश है, जो कल तक सुनहरी जूते पहने, कानों में हीरे के कुण्डल पहने, अपने रथ की स्वर्णघंटियों के घोष से वीथियों को गुञ्जायमान करते हुए नगर में आता था। आज वह नंगे पैर श्रमण गौतम का अनुगत हो भिक्षापात्र लिए अपने ही घर भिक्षान्न की याचना करने जा रहा है।"

किसी ने कहा—"अरे कुलपुत्र यश के मुख का वैभव तो देखो! सुना है, उसे परम सम्पदा प्राप्त हुई है, उसे अमृततत्त्व मिला है।"

पौर वधुओं ने झरोखों में से झांककर कहा—"बेचारे कुलपुत्र की नववधू का भाग्य कैसा है री? अरे यह स्वर्णगात, यह मृदुल-मनोहर गति, यह काम-विमोहन रूप लेकर कैसे इसी वयस में यश कुलपुत्र भिक्षु बन गया?"

कोई कहती—"देखो री देखो, कुलपुत्र का भिक्षुवेश? अरे! इसने अपने चिक्कण घनकुंचित केश मुंडवा दिए। यह निराभरण होकर, पांव-प्यादा चलकर भी कितना सुखी है, शांत है, तेज से व्याप्त है!"

सबने कहा—"उसने अमृत पाया है री! उसने उपसम्पदा प्राप्त की है।"

पौरजन कहने लगे—"काशी में यह श्रमण गौतम उदय हुआ है और वैशाली में वह अम्बपाली। अब इन दोनों के मारे जनपथ में कोई घर में नहीं रहने पाएगा। काशी के सब कुलपुत्रों को यह भ्रमण गौतम भिक्षु बना डालेगा और वैशाली में अम्बपाली सब सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों को अपने रूप की हाट में खरीद लेगी।"

उस समय के सम्पूर्ण लोक में जो सात अर्हत थे, वे चुपचाप बढ़े चले जा रहे थे। उनकी दृष्टि पृथ्वी पर थी, कन्धों पर चीवर था, हाथ में भिक्षापात्र था, नेत्रों में धर्म-ज्योति, मुख पर ज्ञान-दीप्ति, अंग में उपसम्पदा की सुषमा, गति में त्याग और तृप्ति थी। लोग ससम्मान झुकते थे, परिक्रमा करते थे, अभिवादन करते थे, उंगली उठा-उठाकर एक-एक का बखान करते थे।

गृहपति ने आगे बढ़कर सातों अर्हतों का स्वागत किया। उन्हें आसन देकर पाद्य पादपीठ और पादकाष्ठ दिया। जब भगवान् बुद्ध स्वस्थ होकर आसन पर बैठे, तब यश