पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४७४

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लेकर घुटनों के बल रेंग-रेंगकर हाथियों के पैरों और पेटों पर करारे आघात करने का आदेश दिया । इसी कार्य में सुशिक्षित मागध पदाति हाथियों की मार से बचकर उनके पाश्र्व में हो उनके पैरों और पेट में खड्ग से गम्भीर आघात करने और उछल - उछलकर उनकी सूंड़ें काट - काटकर फेंकने लगे । सूंड़ कटने से तथा पैरों और पेट में करारे घाव खा - खाकर हाथी विकल हो महावत के अंकुश का अनुशासन न मान आगे - पीछे, इधर - उधर अपनी और शत्रु की सेना को कुचलते हुए भाग चले । सिंह ने फिर आठ सहस्र कवचधारी अश्वों को आगे बढ़ाकर उन्हें आदेश दिया कि वे शत्रु की सेना के चारों ओर घूम - घूमकर चोट पहुंचाएं । सोमप्रभ ने यह देखा तो वह हाथियों को आगे कर तथा दोनों पार्थों में रथी स्थापित कर आगे-पीछे अश्वारोही ले लिच्छवि सेना के मध्य भाग में सुई की भांति घुसकर उसके उरस्य तक जा पहुंचा। लिच्छवि सैन्य की श्रृंखला भंग हो गई । तब मागध अश्वारोही सेना तेज़ी से अभिसृत , परिसृत , अतिसृत , अपसृत , गोमूत्रिका , मंडल , प्रकीर्णिका , अनुवेश , भग्नरक्षा आदि विविधगतियों से शत्रु - सैन्य में घुसकर उसे मथने लगी । अधमरे अश्व - गज चिल्लाने लगे । घायल सैनिक चीत्कार करने लगे । भट हुंकृति करके भिड़ने और खटाखट शस्त्र चलाने लगे । दोनों ही पक्षों का सन्तुलन ऐसा हुआ , कि प्रत्येक क्षण दोनों ही जय की आशा करने लगे । अब सिंह ने परिस्थिति विकट देख उरस्य में हाथियों के शुद्ध -व्यूह को स्थिर होकर युद्ध करने तथा रथियों को चारों ओर घूमकर शत्रुओं को दलित करने का आदेश दिया । पदाति भट जहां- तहां जमकर , बाण, शूल , शक्ति और धनुष से शस्त्र -वर्षा करने लगे। सम्राट युद्धस्थल से सौ धनुष के अन्तर पर अपने प्रसिद्ध हाथी मलयागिरि पर खड़े युद्ध की गतिविधि देख रहे थे। क्षण- क्षण पर सूचनाएं उन्हें मिल रही थीं । वे शत्रु द्वारा छिन्न -भिन्न होती सेना को ढाढ़स बंधाकर फिर इकट्ठी कर रहे थे । अब अवसर देखकर लिच्छवि सेनापति सिंह ने दण्ड - व्यूह और प्रदर -व्यूह रच कक्ष भागों की ओर से शत्रु - सेना पर आक्रमण का आदेश दिया । सोमप्रभ ने देखा तो उसने तुरन्त दृढ़क व्यूह रच पक्षस्थित सेना को मुड़कर शत्रु - सैन्य पर वार करने का आदेश दिया । सिंह सन्नाह्य- अश्वों से सुरक्षित दस सहस्र अश्वों को असह्यव्यूह में अवस्थित कर स्वयं दुर्धर्ष वेग से सेना के बीच भाग में घुस गए । जय- पराजय अभी अनिश्चित थी । सूर्य इस समय अपराह्न में ढल चले थे। दोनों ओर की सैन्य रक्तपिपासु हो निर्णायक युद्ध करने में लगी थी । धीरे - धीरे युद्ध की विभीषिका बढ़ने लगी । घायल भट मृतक पुरुषों और पशुओं की ओट में होकर बाण -वर्षा करने लगे। मरे हुए हाथियों, घोड़ों , सैनिकों तथा टूटे - फूटे रथों से युद्धस्थल का सारा मैदान भर गया । एक दण्ड दिन रहे दोनों ओर से युद्ध बन्द करने के संकेत किए गए । हाथी , घोड़े, सैनिक धीरे - धीरे अपने - अपने आवास को लौटने लगे । सूर्यास्त से कुछ प्रथम ही युद्ध विभीषिका शान्त हो गई, परन्तु इस एक ही दिन के युद्ध में दोनों पक्षों की अपार हानि हो गई । यह महाभीषण युद्ध जब सूर्यास्त होने पर बन्द हुआ तो आहत , थकित , भ्रमित योद्धा अपने अपने स्थानों पर उदास और निराश भाव से लौट आए।