पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५०७

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155 . अश्रु - सम्पदा मध्य रात्रि थी । एक भी तारा आकाश - मण्डल में नहीं दीख रहा था । काले बादलों ने उस अंधेरी रात को और भी अंधेरी बना दिया था । बीच -बीच में कभी -कभी बूंदा- बांदी हो जाती थी । हवा बन्द थी , वातावरण में एक उदासी , बेचैनी और उमस भरी हुई थी । दूर तक फैले हुए युद्ध - क्षेत्र में सहस्रों चिताएं जल रही थीं । उनमें युद्ध में निहित सैनिकों के शव जल रहे थे। चरबी के जलने के चट - चट शब्द हो रहे थे। कोई -कोई चिता फट पड़ती थी । उसकी लाल - लाल अग्निशिखा पर नीली - पीली लौ एक बीभत्स भावना मन में उदय कर रही थी । सैनिक शव ढो -ढोकर एक महाचिता में डाल रहे थे। बड़े - बड़े वीर योद्धा, जो अपनी हुंकृति से भूतल को कपित करते थे,छिन्नमस्तक -छिन्नबाहु भूमि पर धूलि - धूसरित पड़े थे । राजा और रंक में यहां अन्तर न था । अनेक छत्रधारियों के स्वर्ण-मुकुट इधर - उधर लुढ़क रहे थे। कोई - कोई घायल योद्धा मृत्यु -विभीषिका से त्रस्त हो रुदन कर बैठता था । कोई चीत्कार करके पानी और सहायता मांग रहा था । वायु में चिरायंध भरी थी । जलती हुई चिताओं की कांपती हुई लाल आभा में मृतकों को ढोते हुए सैनिक उस काली कालरात्रि में काले -काले प्रेत - से भासित हो रहे थे। सम्पूर्ण दृश्य ऐसा था , जिसे देखकर बड़े-बड़े वीरों का धैर्य च्युत हो सकता था । ___ मागध सेनापति सोमप्रभ एक महाशाल्मलि वृक्ष के नीचे तने से ढासना लगाए ध्यान - मुद्रा से यह महाविनाश देख रहे थे। गहन चिन्ता से उनके माथे पर रेखाएं पड़ गई थीं । उनके बाल रूखे, धूल - भरे और बिखरे हए थे । मह सूख रहा था और होंठ सम्पटित थे । बीच- बीच में उल्लू और सियार बोल उठते थे। उनकी डरावनी शब्द- ध्वनि बहुधा उन्हें चौंका देती थी । क्षण - भर को विचलित होकर वे फिर गहरी ध्यान - मुद्रा में डूब जाते थे । कभी उनके कल्पना - संसार में भूतकालीन समूचा जीवन विद्युत् - प्रवाह की भांति घूम जाता था , कभी तक्षशिला की उत्साहवर्धक और आनन्द तथा ओजपूर्ण छात्रावस्था के चित्र घूम जाते थे; कभी चम्पा की राजबाला का कुन्देंदुधवल अश्रुपूरित मुख और कभी देवी अम्बपाली का वह अपार्थिव नृत्य , कभी सम्राट् की भूलुण्ठित आर्त मूर्ति और कभी अम्बपाली का आर्त चीत्कार; अन्ततः उनका निस्सार -निस्संग जीवन - उस रात्रि से भी अधिक बीभत्स , भयानक और अन्धकारमय भविष्य ! इसी समय निकट पद- शब्द सुनकर उन्होंने किसी वन -पशु की आशंका से खड्ग पर हाथ रखा। परन्तु देखा - एक मनुष्य छाया उन्हीं की ओर आ रही है । छाया के और निकट आने पर उन्होंने भरे स्वर में पुकारा - “ कौन है ? " । __ एक स्त्रीमूर्ति आकर उनके निकट खड़ी हो गई । जलती हुई निकट की चिता के लाल - पीले प्रकाश में सोमप्रभ ने देखा , पहचानने में कुछ देर लगी । पहचानकर वह ससंभ्रम खड़े हो गए । उनके मुंह से जैसे आप ही निकल गया