पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५०८

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" आप ? " “ मैं ही हूं सोमप्रभ ! " सोम स्तम्भित , जड़वत् - अवाक् खड़े रह गए । आगन्तुका ने और भी निकट आकर कहा - “तुझे इस अवस्था में इस स्थान पर देखने के लिए ही भद्र , अपना कठोर जीवन व्यतीत करती हुई मैं अब तक जीवित रही थी । आज मेरे दुर्भाग्यपूर्ण जीवन की सोलहों कला पूर्ण फल गईं ; मेरा नारी होना , मां होना सब कुछ सार्थक हो गया । ” सोम ने चिता के कांपते पीले प्रकाश में आंख उठाकर उस शोक- सन्ताप - दग्धा स्त्री के मुख की ओर देखा , जिस पर वेदनाओं के इतिहास की गहरी अनगिनत रेखाएं खुदी हुई थीं । सोम का मस्तक झुकने लगा और एक क्षण बाद ही वह उस मूर्ति के चरणों पर लोट गए । आगन्तुका ने धीरे - से बैठकर सोम का सिर उठाकर अपनी गोद में रखा। बहुत देर तक सोमप्रभ उस गोद में फफक - फफककर अबोध शिशु की भांति रोते रहे और वह महिमामयी महिला भी अपने आंसुओं से सोमप्रभ के धूलि - धूसरित सिर को सिंचन करती रहीं । बहुत देर बाद सोमप्रभ ने सिर उठाकर कहा - “ मां , इस समय यहां पर क्यों आईं? " " मेरे पुत्र , तुझ निस्संग के साथ रुदन किए बहुत दिन व्यतीत हुए । जब जीवन के प्रभात ही में शोक और दुर्भाग्य की कालिमा ने मुझे ग्रसा था तब रोई थी , सब आंसू खर्च कर दिए थे। फिर इन चालीस वर्षों में एक बार भी रो नहीं पाई भद्र , बहुत - बहुत यत्न किए, एक आंसू भी नहीं निकला । सो आज चालीस वर्ष बाद पुत्र , तुझे छाती से लगाकर इस महाश्मशान में रोने की साध लेकर ही आई हूं । लोकपाल -दिग्पाल देखें अब , यह एक मां अपने एकमात्र पुत्र को चालीस वर्षों से महाकृपण की भांति संचित अपने विदग्ध आंसुओं की निधि से सम्पन्न करने , आप्यायित करने , पुत्र पर अपने आंसुओं से भीगे हुए सुख सौभाग्य की वर्षा करने आई है । " सोम बहुत दूर तक उनकी गोद में सिर झुकाए पड़े रहे। फिर उन्होंने सिर उठाकर कहा " चलो मां , पुष्करिणी के उस पार अपनी कुटिया में मुझ परित्यक्त को ले चलो , मुझे अपनी शरण में ले लो मां ! " “मेरे पुत्र , अभी एक गुरुतर कार्य शेष है; वह हो जाए,पीछे और कुछ । ” " वह क्या मां ? " " तेरे पिता की मुक्ति ? " “ कहां हैं वे मां ? " “ बन्दी हैं ! " “किसने उन्हें बन्दी किया है ? मैं अभी उसका शिरच्छेद करूंगा। " उन्होंने अत्यन्त हिंस्र भाव से खड्ग उठाया । “ तैने ही पुत्र, जा , उन्हें मुक्त कर! __ सोम आश्चर्य से आंखें फाड़कर आर्या मातंगी को देखने लगे । भय, आशंका और उद्वेग से जैसे उनके प्राण निकलने लगे, बड़ी कठिनाई से उनके मुंह से टूटे - फूटे शब्द निकले – “ क्या सम्राट..... " " हां , पुत्र, अब अधिक मेरी लाज को मत उघाड़ ! "