वैशाली का सप्तभूमि प्रासाद उस युग के नन्दन वन से होड़ लगाता था। वहां की सम्पदा, सम्पन्नता विभूति और सजावट देखकर सम्राटों को ईर्ष्या होती थी। यह समूचा महल श्वेतमर्मर का बना था, जिसमें सात खण्ड और सात ही प्रांगण थे। उसकी सबसे ऊंची अट्टालिका पर लगे स्वर्णकंगूर प्रभात की सुनहली धूप में चमकते हुए दूर तक बड़ा भारी शोभा-विस्तार करते थे। यह प्रासाद बहुत विशाल था। उसके सभी द्वार-तोरणों पर प्रत्येक सायंकाल को जूही, चम्पा, चम्पक, मालती और शतदल की मालाएं मोहक ढंग से टांगी जाती थीं। ये मालाएं दूर-दूर के देशों के अधिपतियों और सेट्ठिकुबेरों की ओर से भेंटस्वरूप भेजी जाती थीं। अलिन्दों और प्रकोष्ठों में शुक, सारिका, मयूर, हंस, करण्ड, सारस, लाव, तित्तिर के निवास थे। प्रथम प्रांगण में विशाल मैदान था जहां सन्ध्या होने से पूर्व सुगन्धित जल छिड़क दिया जाता था, जो सन्ध्या होते ही नागरिकों, सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों के विविध वाहन-रथ, हाथी, शिविका, पालकी, सुखपाल आदि से खचाखच भर जाता था। दूसरे प्रकोष्ठ में अम्बपाली की सेना, गज, अश्व, रथ, मेष, गौ, पशु आदि का स्थान था। यहां भिन्न-भिन्न देशों के अद्भुत और लोकोत्तर पशुओं का संग्रह था, जिन्हें अम्बपाली की कृपादृष्टि पाने के लिए अंग, बंग, कलिंग, चम्पा, ताम्रलिप्त और राजगृह के सम्राट, महाराज एवं सेट्ठिजन उपहार रूप भेजते रहते थे। तीसरे प्रांगण में सुनार, जड़िए, जौहरी, मूर्तिकार और अन्य कलाकार अपना-अपना कार्य करते थे। उनकी प्रचुर कला और मनोहर कारीगरी से देवी अम्बपाली का वह अप्रतिम आवास और उसका दिव्य रूप शत-सहस्र गुण देदीप्यमान हो जाता था। चौथे प्रांगण में अन्न, वस्त्र, खाद्य, मेवा, फल और मिष्ठान्न का भंडार था। देश-देश के फलों, पक्वान्नों का वहां पाक होता था। बड़े-बड़े विद्वान् अनुभवी वैद्यराज अनेक प्रकार के अर्क, आसव, मद्य और पौष्टिक पदार्थ बनाते रहते थे और उसकी सुगंध से यह प्रकोष्ठ सुगंधित रहता था। यहां भांति-भांति के इत्र, गंध, सार और अंगराग भी तैयार कराए जाते थे। पांचवें कोष्ठ में अम्बपाली का धन, रत्नकोष, बहीवट और प्रबंध व्यवस्था का खाता था, जहां बूढ़े कर्णिक, दण्डधर, कंचुकी और वाहक तत्परता से इधर-उधर घूमते, हिसाब लिखते, लेन-देन करते और स्वर्ण-गणना करते थे। छठे प्रांगण के विशाल सुसज्जित प्रकोष्ठ में देवी अम्बपाली अपनी चेटिकाओं और दासियों को लेकर नागरिकों की अभ्यर्थना करती, उनका मनोरंजन करती थी और वहीं द्यूत, पान, नृत्य और गान होता था। अर्धरात्रि तक वह गंधर्व नगरी जैसी भूतल पर सर्वापेक्षा जाग्रत् रहती थी। सातवें अलिन्द में देवी अम्बपाली स्वयं निवास करती थी, वहां किसी भी आगन्तुक को प्रवेश का अधिकार न था। इस अलिन्द की दीवारों और स्फटिक-स्तम्भों पर रत्न खचित किए गए थे तथा छत पर स्वर्ण का बारीक रंगीन काम किया गया था। बड़े-बड़े सम्राट् इस अलिन्द की शोभा एक बार देखने को लालायित रहते थे, पर वहां किसी का पहुंचना संभव
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