पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५३

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इसके बाद संगीत-सुधा का वर्णन हुआ तो जैसे सभी उपस्थित पौरगण का पौरुष विगलित होकर उसमें बह गया।

धीरे-धीरे अर्धरात्रि व्यतीत हो चली। अब देवी अम्बपाली ने हंसते हुए प्रमोद प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। प्रत्येक कामुक पर उसने लीला-कटाक्षपात करके उन्हें निहाल किया। इस समय उसने वक्षस्थल को मकड़ी के जाले के समान महीन वस्त्र से ढांप रखा था। कण्ठ में महातेजस्वी हीरों का एक हार था। हीरों के ही मकर-कुण्डल कपोलों पर दोलायमान हो रहे थे। वक्ष के ऊपर का श्वेत निर्दोष भाग बिलकुल खुला था। कटिप्रदेश के नीचे का भाग स्वर्ण-मण्डित रत्न-खचित पाटम्बर से ढांपा गया था। परन्तु उसके नीचे गुल्फ और अरुण चरणों की शोभा पृथक् विकीर्ण हो रही थी। उसकी अनिंद्य सुन्दर देहयष्टि, तेजपूर्ण दृष्टि, मोहक-मन्द मुस्कान, मराल की-सी गति, सिंहनी की-सी उठान सब कुछ अलौकिक थी। उस प्रमोद-कानन में मुस्कान बिखेरती हुई, नागरिकों को मन्द मुस्कान से निहाल करती हुई धीरे-धीरे वह एक अति सुसज्जित स्वर्ण-पीठ की ओर बढ़ी। वहां तीन युवक सामन्तपुत्र उपधानों के सहारे पड़े मद्यपान कर रहे थे। मदलेखा स्वयं उन्हें मद्य ढाल-ढालकर पिला रही थी।

मदलेखा एक षोडशी बाला थी। उसकी लाज-भरी बड़ी-बड़ी आंखें उसके उन्मत्त यौवन को जैसे उभरने नहीं देती थीं। वह पद्मराग की गढ़ी हुई पुतली के समान सौन्दर्य की खान थी। व्यासपीठ पर पड़े युवक की ओर उसने लाल मद्य से भरा स्वर्णपात्र बढ़ाया। स्वर्णपात्र को छूती हुई किशोरी मदलेखा की चम्पक कली के समान उंगलियों को अपने हाथ में लेकर मदमत्त युवक सामन्त ने कहा—"मदलेखा, इतनी लाज का भार लेकर जीवन पथ कैसे पार करोगी भला? तनिक और निकट आओ," उसने किशोरी की उंगली की पोर पकड़कर अपनी ओर खींचा।

किशोरी कण्टकित हो उठी। उसने मूक कटाक्ष से युवक की ओर देखा, फिर मन्दकोमल स्वर से कहा—"देवी आ रही हैं, छोड़ दीजिए।

युवक ने मंद-विह्वल नेत्र फैलाकर देखा-देवी अम्बपाली साक्षात् रतिमूर्ति की भांति खड़ी बंकिम कटाक्ष करके मुस्करा रही हैं। युवक ससंभ्रम उठ खड़ा हुआ। उसने कहा—"अब इतनी देर बाद यह सुधा-वर्षण हुआ!"

"हुआ तो,"—देवी ने कुटिल भ्रूभंग करके कहा—"किन्तु तुम्हारा सौदा पटा नहीं क्या, युवराज?"

"कैसा सौदा?" युवक ने आश्चर्य-मुद्रा से कहा।

अम्बपाली ने मदलेखा को संकेत किया, वह भीतर चली गई।

अम्बपाली ने पीठिका पर बैठते हुए कहा—"मदलेखा से कुछ व्यापार चल रहा था न!" युवराज ने झेंपते हुए कहा—"देवी को निश्चय ही भ्रम हुआ।"

"भ्रम-विभ्रम कुछ नहीं।" उसने एक मन्द हास्य करके कहा—"मेरे ये दोनों मित्र इस सौदे के साक्षी हैं। मित्र जयराज और सूर्यमल्ल, कह सकते हो, युवराज स्वर्णसेन कुछ सौदा नहीं पटा रहे थे?"

जयराज ने हंसकर कहा—"देवी प्रसन्न हों! जब तक कोई सौदा हो नहीं जाता, तब