पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५४

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तक वह सौदा नहीं कहला सकता।" अम्बपाली खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने तीन पात्र मद्य से भरकर अपने हाथ से तीनों मित्रों को अर्पित किए और कहा––"मेरे सर्वश्रेष्ठ तीनों मित्रों की स्वास्थ्य-मंगल-कामना से ये तीनों पात्र परिपूर्ण हैं।"

फिर उसने युवराज स्वर्णसेन के और निकट खिसककर कहा––"युवराज, क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं?"

युवराज ने तृषित नेत्रों से उसे देखते हुए कहा––"केवल इन प्राणों को––इस खण्डित हृदय को अपने निकट ले जाकर।"

अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा––"युवराज का यह प्रणय-निवेदन विचारणीय है, मेरे प्रति भी और मदलेखा के प्रति भी।"

वह उठ खड़ी हुई। उसने हंसकर तीनों युवकों का हाथ पकड़कर कहा, युवराज स्वर्णसेन, जयराज और मित्र सूर्यमल्ल, अब जाओ––तुम्हारी रात्रि सुख-निद्रा और सुखस्वप्नों की हो!"

वह आनन्द बिखेरती हुई, किसी को मुस्कराकर, किसी की ओर मृदु दृष्टिपात करती हुई, किसी से एकाध बात करती हुई भीतरी अलिन्द की ओर चली गई। तीनों मित्र अतृप्त से खड़े रह गए। धीरे-धीरे सब लोग कक्ष से बाहर निकलने लगे और कुछ देर में कक्ष शून्य हो गया। खाली मद्यपात्र, अस्त-व्यस्त उपधान, दलित कुसुम-गन्ध और बिखरे हुए पांसे यहां-वहां पड़े रह गए थे, चेटियां व्यवस्था में व्यस्त थीं और दण्डधर सावधानी से दीपगुच्छों को बुझा रहे थे। तीनों मित्र शून्य हृदय में कसक लेकर बाहर आए। दूर तक उच्च सप्तभूमि प्रासाद के सातवें अलिन्द के गवाक्षों में से रंगीन प्रकाश छन-छनकर राजपथ पर यत्र-तत्र आलोक बिखेर रहा था।