पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/७०

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15. मगध महामात्य आर्य वर्षकार

मगध महामात्य के सौध, सौष्ठव और वैभव को देखकर सोम हतबुद्धि हो गया। उसने कुभा, कपिशा, काम्बोज, पार्शुक, यवन, पांचाल, अवन्ती और कौशाम्बी के राजवैभव देखे थे। कोसल की राजनगरी श्रावस्ती और साकेत भी देखी थीं, पर इस समय जब उसने कुण्डनी के साथ राजगृह के अन्तरायण के अभूतपूर्व वैभव को देखते हुए महामात्य के सौध के सम्मुख आकर वहां का विराट् रूप देखा तो वह समझ ही न सका कि वह जाग्रत् है या स्वप्न देख रहा है।

प्रतीक्षा-गृह में बहुत-से राजवर्गी और अर्थी नागरिक बैठे थे। दण्डधर और प्रतिहार दौड़-धूप कर रहे थे। राजकर्मचारी अपने-अपने कार्य में रत थे। सोम के वहां पहुंचते ही एक दण्डधर ने उसके निकट आकर पूछा—"भन्ते, यदि आप आचार्य शाम्बव्य काश्यप के यहां से आ रहे हैं तो अमात्य-चरण आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

"निस्संदेह मित्र, मैं वहीं से आया हूं, मेरा नाम सोमप्रभ है।"

"तो भन्ते, इधर से आइए!"

दण्डधर उसे भीतर ले गया। अनेक अलिन्दों और प्रकोष्ठों को पार कर जब वह अमात्य के कक्ष में पहुंचा तो देखा, अमात्य रजत-पीठ पर झुके हुए कुछ लिख रहे हैं। सोम को एक स्थान पर खड़ा कर दण्डधर चला गया, थोड़ी देर में लेख समाप्त कर अमात्य ने ज्यों ही सिर उठाया, उसे देखते ही सोमप्रभ भयभीत होकर दो कदम पीछे हट गया। उसने देखा—महामात्य और कोई नहीं, रात में आचार्य के गर्भगृह में जिन राजपुरुष को देखा था, वही हैं।

अमात्य भी सोम को देखकर एकदम विचलित हो उठे। वे हठात् आसन छोड़कर उठ खड़े हुए, परन्तु तत्क्षण ही वे संयत होकर आसन पर आ बैठे।

सोम ने आत्मसंवरण करके खड्ग कोश से निकालकर उष्णीष से लगा अमात्य को सैनिक पद्धति से अभिवादन किया। अमात्य पीठ पर निश्चल बैठे और कठोर दृष्टि से उसकी ओर कुछ देर देखते रहे। फिर भृकुटी में बल डालकर बोले—

"अच्छा, तुम्हीं वह उद्धत युवक हो, जिसे छिद्रान्वेषण की गन्दी आदत है?"

"आर्य, मैं अनजान में अविनय और गुरुतर अपराध कर बैठा था, किन्तु मेरा अभिप्राय बुरा न था।"

"तुमने तक्षशिला में शस्त्र, शास्त्र और राजनीति की शिक्षा पाई है न?"

"आर्य का अनुमान सत्य है।"

"तब तो तुम्हारे इस अपराध का गौरव बहुत बढ़ जाता है।"

"किन्तु आचार्य ने मेरी मनःशुद्धि को जानकर मेरा अपराध क्षमा कर दिया है, अब मैं आर्य से भी क्षमा–प्रार्थना करता हूं।"