"उनकी पद–मर्यादा।"
"वे विश्वविश्रुत विभूति के अधिकारी हैं।"
"जीवित हैं?"
"हां!"
"तो अभी यही यथेष्ट है, मां, शेष सब मैं अपने कौशल से जान लूंगा।"
"परन्तु पुत्र, मेरा आदेश मानना। इधर उद्योग मत करना, इससे तुम्हारा अनिष्ट होगा।"
"माता की जैसी आज्ञा, पर अब मैं जाऊंगा आर्ये!"
"क्या इतनी जल्दी भद्र, अभी तो मैंने तुम्हें देखा भी नहीं।"
"शीघ्र ही मैं लौटूंगा आर्ये!"
"अभी कुछ दिन रहो पुत्र!"
"नहीं रह सकता, आदेश है।"
"किसका भद्र?"
"आर्य वर्षकार का।"
मातंगी चौंककर दो कदम हट गईं। उसने कहा—"अच्छा, अच्छा, समझी! आर्य यहां तक पहुंच चुके?"
"आर्ये, आज प्रातः ही मुझे उनका दर्शनलाभ हुआ।"
"अब कहां जा रहे हो भद्र?"
"चम्पा।"
"एकाकी ही?"
"नहीं, भगिनी भी है मां, आप तो जानती हैं, मेरी एक भगिनी भी है।"
मातंगी ने कांपकर कहा—"किसने कहा भद्र?"
"आचार्यपाद ने।"
"कौन है वह।"
"कुण्डनी।"
"कुण्डनी! सर्वनाश। तुम उसके साथ जा रहे हो पुत्र? ऐसा नहीं हो सकेगा।"
"क्यों मां, क्या बात है?"
"नहीं, वह मैं नहीं कह सकूंगी, कहते ही शिरच्छेद होगा। किसने तुझे कुण्डनी के साथ जाने को कहा?"
"आर्य वर्षकार ने।"
"इन्कार कर दो। कह दो, देवी मातंगी की आज्ञा है।"
"आपकी आज्ञा क्या मगध महामात्य वर्षकार सुनेंगे?"
"उन्हें सुननी होगी। नहीं तो मैं स्वयं आज 28 वर्ष बाद पुष्करिणी के उस पार..."
"देवी मातंगी!" सामने से किसी ने पुकारा। दोनों ने देखा, आचार्य काश्यप हैं। उन्होंने कहा—"कोई भय नहीं है, देवी मातंगी! उसे जाने दो।"
"तुमने आचार्य, उसे कुण्डनी के सुपुर्द किया है?"
"नहीं मातंगी आर्ये, कुण्डनी राजकार्य से केवल उसकी सुरक्षा में चम्पा जा रही