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है।"
"सोम क्या जानता है कि कुण्डनी कौन है?"
"वह जानता है कि वह उसकी भगिनी है।"
"यह क्या यथेष्ट है?"
"है, आप निश्चिन्त रहिए।" फिर उन्होंने घूमकर कहा—"जाओ सोम, विलम्ब मत करो।"
आर्या ने आकुल नेत्रों से पुत्र को देखकर कहा—
"एक क्षण ठहरो, क्या तुमने महामात्य से कुछ प्रतिज्ञा भी की है?"
"की है, आर्ये!"
"कैसी?"
"एकनिष्ठ रहने की।"
"किसके प्रति?"
"साम्राज्य के।"
"और?"
"मगध महामात्य के?"
"और?"
"और किसी के प्रति नहीं।"
"और किसी के प्रति नहीं?"
"नहीं।"
आर्या के नेत्रों में भय की भावना दौड़ गई, उनके होंठ कांपे। आचार्य के रूखे होंठों पर मुस्कान फैल गई, उन्होंने आगे बढ़कर कहा—"बस, अब और अधिक नहीं, देवी मातंगी किसी अनिष्ट की आशंका न करें। जाओ तुम सोमभद्र।"