पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/८२

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जीवन के रहस्यों को समझने के लिए उसने दर्शनों और उसके तत्त्वों का अध्ययन किया था, पर उनसे उसे शान्ति नहीं मिली थी। उसका सर्वप्रथम विषय उसकी बाल्यावस्था की स्मृति थी, जो दिन-दिन उससे दूर होती जाती थी और अब सत्य यह था कि उसके अधर धधकती अग्नि के समान दाहक और मधु से मधुर थे। इन्हीं सब बातों पर विचार करते-करते वह कभी-कभी उत्तेजित होकर चिल्लाने लगती—"नहीं, नहीं , मैं किसी से प्रेम नहीं करती, नहीं कर सकती, किसी व्यक्ति से भी नहीं। मैं उन सबसे घृणा करती हूं जो आनन्दभोगी हैं। यह सप्तभूमि प्रासाद मेरे जीवन पर बोझ है। ये सान्ध्यमित्र मेरे हृदय पर रेंगने वाले घृणित कीट हैं, वह उनके स्त्रैण चरित्र और स्त्रैण वेशभूषा का स्मरण कर घृणा से होंठ सिकोड़ लेती। कभी-कभी विचलित होकर चिल्ला उठती।

फिर उसका ध्यान अपने अप्रतिम अंग-सौष्ठव पर जाता, वह अपने अद्भुत रूप को पुष्करिणी के स्वच्छ जल में निहारकर कभी-कभी बहुत प्रसन्न हो जाती। उस समय वे सब वासनाएं, जिनकी उसे चाट पड़ गई थी, एक-एक कर उसके निकट आकर उसके अंग-प्रत्यंग में पैठ जाती थीं और वह मन्द मुस्कान के साथ कहती—कोई हानि नहीं, इसी रूप की ज्वाला में, मैं विश्व को भस्म करूंगी। इस अछूते रूप को सदा अछूता रखूंगी, इस सुषमा की खान गात्र को किसी को छूने भी न दूंगी, विश्व इसे भोग न सकेगा। वह इसकी पूजा ही करे। उसका हृदय गर्व और तेज से भर आता। वह अब उन कवियों, चित्रकारों और कलाकारों का स्मरण करती, जिनकी कृति से वह प्रभावित हो चुकी थी और उन पर एक सन्तोष की विचारधारा दौड़ाकर बहुधा उसी लताकुञ्ज में उसी श्वेत मर्मर की श्वेत शीतल पटिया पर वह सो जाती।

उपवन में दर्श-विदश के बहुत-से वृक्ष लगे थे। उन्हें देश-देशान्तरों से लाने, उनकी प्रकृति के अनुकूल जलवायु में उन्हें पालने में बहुत द्रव्य खर्च हुआ था। उनकी सिंचाई के लिए निर्मल मीठे जल की एक कृत्रिम उपकुल्लिका पुष्करिणी से निकालकर उपवन के चारों ओर बहाई गई थी। काम-पुष्करिणी में कुशल शिल्पियों ने कई एक कृत्रिम पहाड़ियों, स्तम्भ-चिह्नों और कला की प्रतीक मूर्तियों का सर्जन किया था, जिनका प्रतिबिम्ब पुष्करिणी के मोती के समान जल में भव्य प्रतीत होता था। जिस लताकुञ्ज में अम्बपाली बैठी थी, उसमें जो प्रकाश आता था, वह पानी की पतली चादर से छनकर मद्धिम और रंगीन छटा धारण करता था। कुञ्ज में एक हाथीदांत का महार्घ छपरखट भी था जिसकी दुग्धफेन-सम शैया पर कभी-कभी अम्बपाली सुख की नींद लेती थी। रत्नजटित स्वर्ण के धूपदानों में वहां कीमती सुगन्ध-द्रव्य सदा जलते रहते थे। बड़े-बड़े आधारों में दुर्लभ रंग-बिरंगे पौधे सजाकर रखे गए थे। कुछ के फूल ऊदे रंग के थे, कुछ के पीत और कुछ के नील वर्ण। ऐसा ही वह अद्भुत लताकुञ्ज और उपवन था।

एकाएक आंख खुलने पर उसने देखा—उस सुरक्षित लताकुञ्ज में एक प्रभावशाली पुरुष उसके सम्मुख खड़ा है। उसकी अवस्था तरुणाई का उल्लंघन करने लगी है—परन्तु उसका गौर वर्ण, तेजस्वी मुख सूर्य के समान देदीप्यमान है। उसके सघन काले बाल काकपक्ष के रूप में पीछे को संवारे हुए हैं। प्रशस्त वक्ष और प्रलम्ब पुष्ट बाहु बहुमूल्य दुकूल से आवृत हैं। अधोअंग में एक कोमल पीत कौशेय सुशोभित है। उसकी सघन काली मूंछें उसके दर्शनीय मुख पर अद्भुत शोभाविस्तार कर रही हैं। कानों में हीरक-कुण्डल और कण्ठ