पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/८९

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स्वच्छ, संगमर्मर-सा चिकना गात्र, कमल के समान मुख और बहुमूल्य नीलम के समान पानीदार आंखें उसे दुनिया की लाखों-करोड़ों स्त्रियों से पृथक् कर रही थीं। उस असाधारण तेज-रूप और गरिमामयी रमणी की ओर उस पानगोष्ठी में अनगिनत आंखें उठकर अपलक रह जाती थीं। अन्य स्नातकों ने और गान्धार शिष्टदल के सदस्यों ने भी अपनी-अपनी रुचि और समय के अनुकूल परिधान धारण किया था और वे सब बहुत ही शोभायमान हो रहे थे। वे जिधर भी जाते—नागरिक स्त्री-पुरुष उनका ससम्मान स्वागत कर रहे थे।

वैशाली के नागरिकों में महाबलाधिकृत सुमन थे, जिनकी श्वेत लम्बी दाढ़ी और गम्भीर चितवन उनके अधिकार और गौरव को प्रकट करते थे। नौबलाध्यक्ष चन्द्रभद्र अपने स्थूल किन्तु फुर्तीले शरीर के साथ उपस्थित थे। उनकी आयु साठ को पार गयी थी, उनका चेहरा रुआबदार था। उस पर श्वेत गलमुच्छे और छोटी-छोटी चमकीली आंखें उन्हें सबसे पृथक् कर रही थीं। वे जन्मजात सेनापति मालूम देते थे। वे फक्कड़, हंसमुख और मिलनसार थे और इधर-उधर चुहल करते फिर रहे थे। इस समय वे खूब भड़कीली पोशाक पहने थे। श्रोत्रीय आश्वलायन भी इस गोष्ठी की शोभा बढ़ा रहे थे। ये प्रसिद्ध गृहसूत्रों के निर्माता कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। ये कमर में पाटम्बर पहने और कन्धे पर काशी का बहुमूल्य शाल डाले, लम्बी चुटिया फटकारे, बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे और बात-बात पर अपने गृहसूत्रों का ही राग अलाप रहे थे। इनकी कमर में श्वेत जनेऊ था। इनकी खोपड़ी गंजी, चेहरा सफाचट और दांत कुछ गायब, कुछ सड़े हुए, शरीर लम्बा, दुबला, जैसे हड्डियों पर खाल चढ़ा दी हो। अपनी मिचमिची आंखों से घूर-घूरकर सुन्दरियों को ताक रहे थे।

इनकी बगल में उपनायक शूरसेन अपने ठिगने गोल-मटोल शरीर को विविध शस्त्रों और आभरणों से सजाए किसी अभिनयकर्ता से कम नहीं प्रतीत होते थे। ये बड़े विनोदी पुरुष थे और संगीत की इन्हें सनक थी। इनके संगीत की प्रशंसा करने पर इनसे सब-कुछ लिया जा सकता था।

ब्राह्मण मठ के आचार्य महापंडित भारद्वाज अपनी लम्बी चुटिया फटकारे, तांबे के समान चमकदार शरीर पर स्वच्छ जनेऊ धारण किए, महाज्ञानी दार्शनिक गोपाल से उलझ रहे थे। गोपाल हंस-हंसकर अपना तर्क भी करते जाते थे और गोल-गोल ललचाई आंखों से सुन्दरियों की रूप-सुधा का पान भी करते जाते थे। उनके इस आचरण पर कुछ मुग्धाएं झेंप रही थीं और कुछ प्रौढ़ाएं मुस्करा रही थीं।

परन्तु एक व्यक्ति इन सबसे अलग-अलग मानो सबको अपने से तुच्छ समझता हुआ, सबका बारीकी से निरीक्षण करता हुआ, कुछ मुस्कराता, कुछ गुनगुनाता घूम रहा था। उसके वस्त्र बहुमूल्य, पर अस्त-व्यस्त थे। उसकी आयु का कुछ पता नहीं लगता था कि कितनी है। शरीर ऐसा सुगठित दीख रहा था कि कदाचित् वह एक मजबूत सांड़ को भी गिरा दे। कुछ लोग उससे बात किया चाहते थे, पर वह किसी को मुंह नहीं लगाता था। लोग उसकी ओर संकेत करके बहुत भांति की बातें करते थे। कुछ चमत्कृत नेत्रों से और कुछ संदिग्ध भाव से उसकी ओर ताक रहे थे। वास्तव में यह वैशाली का प्रसिद्ध कीमियागर वैज्ञानिक सिद्ध गौडपाद था जिसकी बाबत प्रसिद्ध था कि उसके पास पारसमणि है और वह पर्वत को भी स्वर्ण कर सकता है तथा उसकी आयु सैकड़ों वर्ष की है।

तरुण-मण्डल में युवराज स्वर्णसेन, उनके मित्र सांधिविग्रहिक जयराज और अट्टवी-