पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

सबने चकित होकर कहने वाले की ओर घूमकर देखा, आचार्य गौड़पाद भावहीन रीति से मुस्करा रहे हैं। तरुणों ने उनकी उपस्थिति से अप्रतिभ होकर कहा—

"नहीं, नहीं, अभी भी समय है। पान आरम्भ नहीं हुआ। चलो, हम लोग सिंह के पास चलें।" तीनों तरुण तेज़ी से उधर चल दिए—जहां तरुण मण्डल से घिरे सिंह उनके विविध प्रश्नों के उत्तर में उनके कौतूहल को दूर कर उनका मनोरंजन कर रहे थे।

देवी अम्बपाली अपनी दो दासियों के साथ आई थीं। उन्होंने अपना प्रिय श्वेत कौशेय का उत्तरीय और लाल अन्तर्वासक पहना था। वे कौशाम्बीपति उदयन की दी हुई गुलाबी रंग की दुर्लभ मुक्ताओं की माला धारण किए थीं। उनकी दृष्टि में गर्व, चाल में मस्ती और उठान में सुषमा थी। अम्बपाली को देखते ही लोगों में बहुविध कौतूहल फैल गया। क्षण भर को उनकी बातचीत रुक गई और वे आश्चर्यचकित हो उस रूपज्वाला की अप्रतिम देहयष्टि को देखने लगे।

पान प्रारम्भ हो गया। दास-दासी दौड़-दौड़कर मेहमानों को मैरेय, माध्वीक और दाक्खा देने लगे।

अम्बपाली हंसती हुई उनके बीच राजहंसिनी की भांति घूमने और कहने लगी—"मित्रो! अभिनन्दन करती हूं और अभिलाषा करती हूं खूब पियो!"

वह मन्द गति से घूमती हुई वहां पहुंची जहां तरुण-तरुणियों से घिरे हुए सिंह अपने संगियों के साथ हंस-हंसकर विविध वार्तालाप कर रहे थे। उसने रोहिणी के निकट पहुंचकर कहा—"गान्धार कन्या का वज्जी भूमि पर स्वागत! सिंह ज्ञातिपुत्र, तुम्हारा भी और तुम्हारे सब साथियों का भी।" फिर उसने हंसकर रोहिणी से कहा—

"वैशाली कैसी लगी बहिन?"

"शुभे, क्या कहूं! अभी बारह घड़ी भी इस भूमि पर आए नहीं हुईं। इसी बीच में इतनी आत्मीयता देख रही हूं। देखिए, रम्भा भाभी को, इनके स्पर्श मात्र से ही मार्ग के तीन मास की थकान मिट गई।"

"स्वस्ति रम्भा बहिन, तुम्हारी प्रशंसा पर ईर्ष्या करती हूं।"

"देवी अम्बपाली की ईर्ष्या मेरे अभिमान का विषय है।"

अम्बपाली ने मुस्कराकर सिंह से कहा—"मित्र सिंह, तुम्हें मैं तक्षशिला से ऐसी अनुपम निधि ले आने पर बधाई देती हूं।" फिर रोहिणी की ओर देखकर कहा—"भद्रे रोहिणी, वज्जीभूमि क्या तुम्हें गान्धार-सी ही दीखती है? कुछ नयापन तो नहीं दीखता?"

"ओह, एक बात मैं वज्जीभूमि में सहन नहीं कर सकती हूं?"

"वह क्या बहिन?"

"ये दास!"

उसने एक कोने में विनयावनत खड़ी अम्बपाली की दोनों दासियों की ओर संकेत करके कहा—"कैसे आप मनुष्यों को भेड़-बकरियों की भांति खरीदते-बेचते हैं? और कैसे उन पर अबाध शासन करते हैं?" वह शरच्चन्द्र की कौमुदी में निर्मल पुष्करिणी में खिली कुमुदिनी की भांति स्निग्ध-शीतल सुषमा बिखरने वाली अम्बपाली की यवनी दासी मदलेखा के निकट आई, उसकी लज्जा से झुकी हुई ठोड़ी उठाई और कहा—" कैसे इतना सहती हो बहिन, जब हम सब बातें करते हैं, हंसते हैं, विनोद करते हैं, तुम मूक-बधिर-सी