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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/९७

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को ले लो। देखा नहीं तुमने प्रिय, हस्तिनापुर, काम्पिल्य कान्यकुब्ज, कोसल और प्रतिष्ठान, जहां-जहां आर्यों के रज्जुले हैं, वहां राष्ट्र टूटा-फूटा है। वहां ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं और कर्मकर हैं, वे सब अपने को दूसरे से भिन्न समझते हैं। ये सभी बातें राजाओं की स्वेच्छाचारिता में बड़ी सहायक हैं। परन्तु गणशासन की बड़ी बाधा है। यहां वैशाली ही को लो। लिच्छवि सब एक हैं, पर अलिच्छवि आर्य और कर्मकर राजशासन में अधिकार न रखते हुए भी इस भिन्नता के कारण हमारी बहुत बड़ी बाधाएं हैं।

रम्भा ने इन बातों से ऊबकर कहा—"किन्तु स्रुषा गान्धारी, इस गहरी राजनीति से अपने हाथ कुछ न आएगा। कुछ खाओ-पियो भी।"

पान-भोजन प्रारम्भ हुआ। मैरेय, शूकर-मार्दव, मृग, गवन ओदन और मधुगोलक आदि भोजन-सामग्री परोसी जाने लगी। देवी अम्बपाली धर्मध्वज मण्डली से चुहल कर रही थीं। किन्तु उनकी सुन्दर दासियों को गान्धारी रोहिणी ने नहीं छोड़ा था—वे उसके पास बैठीं महिला–मण्डली के साथ-साथ खा-पी रही थीं। भोजन की समाप्ति पर सब नर नारियों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार नृत्य किया और अर्द्धरात्रि व्यतीत होने पर यह समारोह समाप्त हुआ।