पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/९८

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19. मल्ल दम्पती

वसन्त की मस्ती वातावरण में भर रही थी। शाल वृक्षों पर लदे सफेद फूलों की सुगन्ध वन को सुरभित कर रही थी। एक तरुण और एक तरुणी अश्व पर सवार उस सुरभित वायु का आनन्द लेते, धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे। तरुणी का घुटने तक लटकने वाला अन्तर्वासक हवा में फड़फड़ा रहा था और उसके कुंचित, काली नागिन-से उन्मुक्त केश नागिन की भांति हवा में लहरा रहे थे। तरुण ने अपने घोड़े की रास खींचते हुए और अपने सुन्दर दांतों की छटा दिखाते हुए कहा—"वाह क्या बढ़िया आखेट है। वह देखो, पुष्करिणी के तीर पर वह सूअर अपनी थूथन कीचड़ में गड़ा-गड़ाकर क्या मज़े में मोथे की जड़ खा रहा है।"

"तो मैं अपना बाण सीधा करूं प्रिय?"

"ठहरो प्रिये, वह देखो, एक और मोटा वराह इधर ही को आ रहा है, हृदय पर बाण-संधान करना।"

तरुणी ने बाण धनुष पर चढ़ाकर अश्व को घुमाया।

तरुण ने भी फुर्ती से बाण को धनुष पर चढ़ा लिया। फिर उसने तरुणी के बराबर अश्व लाकर कहा—"सावधान रहना, यदि लक्ष्यच्युत हुआ तो पशु सीधा अश्व पर आएगा। हां, अब बाण छोड़ो।"

तरुणी ने कान तक खींचकर बाण छोड़ दिया। बाण सन्न से जाकर वराह की पसलियों में अटक गया। पशु ने वेदना से चीत्कर किया और क्रुद्ध हो घुर्र-घुर्र शब्द करता हुआ सीधा तरुणी के अश्व पर टूटा।

तरुण ने भी इसी बीच तानकर एक बाण चलाया, वह उसकी आंख फोड़ता हुआ गर्दन के पार निकल गया, पशु भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा।

तरुणी ही-ही करके हंसने लगी। तरुण घोड़े से उतर पड़ा। वह पशु को खींचकर एक वृक्ष के नीचे ले गया। तरुणी ने भी घोड़े से उतर दोनों घोड़ों को बाग-डोर से बांध दिया। फिर तरुण ने पशु की खाल निकाली, मांस-खण्ड किए, तरुणी सूखी लकड़ियां बीन लाई और फिर उन्होंने मांस-खण्ड भून-भूनकर खाना प्रारम्भ किया।

तरुणी ने सुराचषक तरुण के मुंह लगाते हुए कहा-"प्रिय, कितना स्वाद है इसमें, कहो तो?"

"निस्संदेह, विशेषतः इसलिए कि इसमें हमारी स्वतन्त्रता भी समावेशित है।"

"यही तो, परन्तु प्रिय, कुशीनारा छोड़ते मेरी छाती फटती है। क्या कुशीनारा को बंधुल मल्ल की आवश्यकता ही नहीं है?"

"नहीं है प्रिये मल्लिके, तभी तो जब मैंने स्नातक होकर तक्षशिला को छोड़ा था, तो गुरुपद ने कहा था—यह आयुष्मान् जा रहा है, समस्त हस्तलाघव और राजकौशल