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वैशेषिक दर्शन।

के द्वारा पेट की आग अन्न के पचाने के लिये इधर उधर चलाई जाती है उसे 'समान' कहते हैं। मुख और नाक के द्वारा जो बाहर निकलता है उसे 'प्राण' कहते हैं। (प्रशस्तपाद श्रीधरी टीका पृ॰ ४८)

प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि में, उदान कंण्ठ में, व्यान सर्वत्र शरीर में रहता है ऐसा पुराणों का मत है।

पृथिवी, जल, तेज, वायु कैसे उत्पन्न होते हैं।

आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों के अवयव नहीं होते। ये अपने रूप में सर्वदा बने रहते हैं। इन में घटती बढ़ती नहीं होती। इससे इनको नित्य माना है। इनकी उत्पत्ति नहीं होती नाश नहीं होता। पृथिवी आदि के अवयव होते हैं। इस से इनकी उत्पत्ति मानी गई हैं।

पृथ्वी आदि द्रव्यों की उत्पत्ति प्रशस्तपाद भाष्य (पृष्ट ४८, ४९) में इस प्रकार वर्णित है।

जीवों के कर्मफल के भोग करने का समय जब आता है तब महेश्वर की उस भोग के अनुकूल सृष्टि करने की इच्छा होती है। इस इच्छा के अनुसार जीवों के अदृष्ट के बल से वायु के परमाणुओं में चलन उत्पन्न होता है। इस चलन से उन परमाणुओं में परस्पर संयोग होता है। दो दो परमाणुओं के मिलने से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं। तीन द्वयणुक मिलने से त्रसरेणु। इसी क्रम से एक महान् वायु उत्पन्न होता है। उसी वायु में परमाणुओं के परस्पर संयोग से जलद्वयणुक त्रसरेणु इत्यादि क्रम से महान् जलनिधि उत्पन्न होता है। इस जल में पृथ्वी परमाणुओं के परस्पर संयोग से द्वयणुकादि क्रम से महापृथ्वी उत्पन्न होती है। फिर उसी जलनिधि में तेजस् परमाणुओं के परस्पर संयोग से तेजस् द्वयणुकादि क्रम से महान् तेजोराशि उत्पन्न होती है। इसी तरह चारों महाभूत उत्पन्न होते हैं।

यही संक्षेप में वैशेषिकों का 'परमाणुवाद' है। इसमें पहिली बात विचारने की यह है कि परमाणु मानने की क्या आवश्यकता है। इस पर वैशेषिकों का सिद्धान्त ऐसा है कि जितनी चीजें हम देखते