करता है। (२४) संयोग, विभाग, संख्या, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग, धर्म, अधर्म—ये अपने आश्रय में भी और दूसरी चीजों में भी गुण उत्पन्न करते हैँ। जैसे गाड़ी के अवयवों का वेग उन्हीं अवयवों में और वेग उत्पन्न करता है और गाड़ी में गमन क्रिया उत्पन्न करता है। (२५) गुरुत्व, द्रवत्व, वेग, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संयोग—ये पतनादि क्रिया उत्पन्न करते हैँ। ऊपर से जब चीज गिरती है उस गिरने का कारण उस वस्तु का गुरुत्व है। (२६) रूप, रस, गन्ध, अनुष्णस्पर्श, संख्या, परिमाण, एक्पृथक्त्व, स्नेह शब्द—ये असमवायिकारण होते हैँ। जैसे सुख का समवायि कारण है आत्मा और उसका असमवायिकारण है आत्मा, मनस का संयोग। (२७) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म संस्कार—ये निमित्त कारण होते हैँ। (२८) संयोग, विभाग, उष्णस्पर्श, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग—ये असमवायि कारण भी होते हैं और निमित्त कारण भी। जैसे ढोल और लकड़ी का संयोग शब्द का निमित्त कारण और ढोल आकाश के संयोग का असमवायिकारण होता है। (२९) परत्व, अपरत्व, द्वित्व, द्विपृथक—ये किसी तरह के कारण नहीं होते। (३०) संयोग, विभाग, शब्द, और आत्मा के विशेष गुण—ये अपने आश्रय के किसी एक भाग मेँ रहते हैँ। जैसे घड़ा और पृथिवी का संयोग घड़े की पेंदी में और पृथिवी के उसी छोटे हिस्से में रहता है। (३१) इनके अतिरिक्त जितने गुण हैँ वे अपने अपने आश्रय के समग्र भाग में रहते हैँ। (३२) जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श अग्नि के संयोग से नहीं उत्पन्न होते परिमाण–एकत्व–एक पृथक–स्वाभाविकद्रवत्व, गुरुत्व, स्नेह, ये जब तक इनके आश्रय रहते हैँ तब तक बराबर रहते हैँ। जब तक फूल रहता है तब तक उसका रंग रहता है। (३३) बाकी गुण आश्रयों के रहते भी नष्ट हो जाते हैँ। जैसे अग्नि के संयोग से जो लोहे में लाल रंग हो जाता है वह लोहे के रहते ही आग के हट जाने से नष्ट हो जाता है। (३४) जितने गुण हैँ सभी में परस्पर वैधर्म्य यही है कि अपना अपना उनका स्वभाव पृथक् पृथक् होता है इससे उनके नाम भी 'रूप' 'रस' इत्यादि अलग अलग होते हैँ।
प्रशस्तपादभाष्य में पृथक पृथक् गुणों का निरूपण किया है—