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प्रथकत्व, संयोग।

तो उत्पत्ति नहीं होती। अनित्य परिमाण की उत्पत्ति तीन तरह से होती है—(१) संख्या से—द्वयणुक में जो 'बड़ा' परिमाण उत्पन्न होता है सो द्वयणुकों की संख्याही से होता है। तीन द्वयणुकों के एकत्र होने से द्वयणुक बनता है। (२) परिमाण से—जैसे बड़े बड़े सूतों से बुना हुआ कपड़ा बड़ा होता है। यहां पर कपड़े का परिमाण सूतों के परिमाण से उत्पन्न हुआ। (३) प्रचय या ढेरी से उत्पन्न—जैसे रूई के ढेर के ऊपर ढेर रक्खे जाते हैँ तो थोड़ी देर में सब ढेर मिल कर एक बहुत बड़ा ढेर बन जाता है। इस बड़े ढेर का 'बड़ा' परिणाम कई ढेरों के मिलने से उत्पन्न हुआ।

उत्पन्न, अनित्य जितने परिमाण हैँ उनका नाश तभी होगा जब जिस द्रव्य में वे हैं उसका नाश हो।

पृथक्त्व (७)

इस वस्तु का स्वभाव उस वस्तु के स्वभाव से दूसरी तरह का है यह बुद्धि जिस गुण के द्वारा होती है उसको पृथक्त्व कहते हैँ। 'पृथक' और 'अन्योन्याभाव' में यह भेद है कि अन्योन्याभाव से 'घटपट नहीं है'—इससे घट क्या नहीं है इतनाही बोध होता है परन्तु पृथक्त्व के द्वारा जो वस्तु पृथक् कही जाती है उसके स्वभाव लक्षण का भी कुछ ज्ञान होता है। और अन्योन्याभाव से केवल बुद्धि गत भेद भासित होता है, पृथक्त्व से वाह्य शारीरिक भेद।

यह एक द्रव्य में और अनेक द्रव्यों में भी रहता है। इसकी नित्यता अनित्यता संख्या की तरह है।

संयोग (८)

दो वस्तुएं जो पहिले से अलग थीं यदि एक दूसरे से मिल जाँय तो इसी मिलने को संयोग कहते हैं। संयोग से द्रव्य उत्पन्न होते हैं जैसे परमाणुओं के संयोग से घटादि द्रव्य। संयोग से गुण भी उत्पन्न होते हैं। जैसे अग्नि के संयोग से घट में रूप गुण पैदा होता हैं। संयोग से कर्म भी उत्पन्न होता है। जैसे वृक्ष की पत्तियों का वायु से संयोग होता है तब उन पत्तियों में चलनक्रिया उत्पन्न होती है।

संयोग कभी भी नित्य नहीँ होता। इसीसे दो भिन्न नित्य पदार्थों का सम्बन्ध कभी संयोग नहीँ हो सकता। क्योंकि ये कभी