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वैशेषिक दर्शन।


यह भी नैयायिक वैशेषिक के मतभेद का एक स्थान है—

वैशेषिक में द्वित्यादि संख्या अपेक्षाबुद्धिजन्य है, अपेक्षाबुद्धि से इन की उत्पत्ति होती है। नैयायिकों के मत से ये उत्पन्न नहीं होते, अपेक्षा बुद्धि से केवल इन संख्याओं का ज्ञान होता है इस से ये 'अपेक्षाबुद्धिज्ञाप्य' है। वैशेषिकों के मत से द्वित्यादि संख्याओं की एक स्वयं स्वतंत्र संज्ञा होती है, न्याय मत में इनकी स्वतंत्र पृथक् संज्ञा नहीं है। एकत्व ही के अन्तर्गत ये सब हैं। जब कई एकत्व का ज्ञान होता है तब द्वित्वादि संख्या का ज्ञान मात्र होता है, ये स्वयं नहीं उत्पन्न होते।

परिमाण (६)

नाप जिस गुण के द्वारा होती है उसको 'परिमाण' कहते हैं। यह गुण पृथ्वी आदि नवों द्रव्यों में रहता है। यह चार प्रकार का है—अणु [छोटा], महत् [बड़ा], दीर्घ [लम्बा], ह्रस्व [नाटा]। 'बड़ा' दो प्रकार का है—नित्य और अनित्य। आकाश कालदिक् आत्मा—ये सब 'बड़े' और नित्य हैं, इस से 'बड़ा' परिमाण नित्य है, इसी को 'उत्तम बड़ा' भी कहते हैं। अनित्य बड़ा परिमाण त्र्यणुक से लेकर और सब स्थूल द्रव्यों में है, इसी को 'मध्यम' बड़ा परिमाण भी कहते हैं। इसी तरह 'छोटे' परिमाण भी परमाणु में और मन में नित्य हैं, इसी नित्य 'छोटे' परिमाण को अणुपारिमाण, या 'पारिमंडल्य' भी कहा है। अनित्य या 'मध्यम' छोटा परिमाण केवल द्वयणुक द्रव्य में है। द्वयणुक का परिमाण 'छोटा' माना है क्योंकि द्वयणुक का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रत्यक्ष उन्हीं वस्तुओं का होता है जिनमें 'महत्' या 'बड़ा' परिमाण है। मामूली पदार्थों में, आम, बैर, कटहल इत्यादि में जो 'छोटा' परिमाण कहा जाता है सो ठीक नहीं। क्योंकि जिस में 'छोटा' परिमाण रहेगा उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इससे 'बैर छोटा' है इसका तात्पर्य यह नहीं है कि बैर में 'छोटा' परिमाण है, अर्थ इतना ही है कि बैर में जो 'बड़ा' परिमाण है वह और बड़े बड़े फलों के सामने कुछ कम है। इसी तरह 'लम्बा' और 'नाटा' परिमाण भी समझना चाहिये।

परिमाण दो प्रकार का होता है—नित्य और अनित्य। नित्य की