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परत्व अपरत्व।

लड़ते हुए भेड़े जब लड़ कर दोनों पीछे हटते हैँ तब इन दोनों का विभाग दोनों के कर्म से होता है। (३) विभागज विभाग—जैसे घड़े के परमाणुओं में जब चलन क्रिया उत्पन्न हुई तब एक परमाणु और परमाणुओं से अलग हो गया, फिर ये दोनों अलग हुये परमाणु जिस आकाश भाग से अलग हो जाते हैं, यह परमाणु का उस आकाश प्रदेश से विभाग दोनों परमाणुओं के परस्पर विभाग से उत्पन्न हुआ।

नैयायिकों ने इस विभागज विभाग को नहीं माना है। इसका कारण यह है कि अवयवों से अवयव का (परमाणु का घट से) विभाग यदि माना जाय तो इनके बीच जो समवाय रूप नित्य सम्बन्ध माना गया वह कैसे हो सकता है। समवाय तो उन्हीं दो वस्तुओं के बीच रह सकता है जो कभी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकती हैं।

इसका उत्तर प्रशास्तपादभाष्य (पृ॰ १५२) में दिया है कि 'कभी अलग नहीं' इसका अर्थ यह नहीं है कि अलग अलग चल न सकें, ऐसा समवाय तो केवल नित्य द्रव्यों ही में हो सकेगा।

अनित्य द्रव्यों का 'समवाय' कभी अलग नहीं होने का अर्थ यह है कि ये कभी भी भिन्न भिन्न आश्रय में नहीं पाये जाते, जब पाए जांयगे तब एक ही आश्रय में। इसी प्रकार त्वगिन्द्रिय और शरीर का सम्बन्ध यद्यपि ऐसा है कि शरीर से अलग त्वगिन्द्रिय चल नहीं सकता तथापि इनका सम्बन्ध समवाय नहीं माना गया है, क्योंकि इनका आश्रय अलग अलग है। त्वागिन्द्रिय का आश्रय शरीर है और शरीर का आश्रय आकाश हैं।

वैशेषिक सूत्र में तीनों माना है (७।२।१०)

परत्व अपरत्व (१०—११)

जिन गुणों के द्वारा 'आगे पीछे' का ज्ञान होता है उनको 'परत्व' 'अपरत्व' कहते हैं। 'आगे' के ज्ञान का कारण अपरत्व है और पीछे के ज्ञान का कारण परत्व है। ये गुण पृथिवी, जल, वायु, तेज, इन्हीं द्रव्यों में रहते हैं। क्योंकि ये ही द्रव्य परिमित प्रदेश में रहते हैं। नित्य विभु द्रव्यों में आगे पीछे का भेद नहीं हो सकता।

परत्व अपरत्व दो प्रकार के होते हैं। कालसम्बन्धी और देशसम्बन्धी। दो वस्तुओं में से जो मेरे नज़दीक होगीं, जिसके और मेरे