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वैशेषिक दर्शन।

बीच के देशका परिमाण मेरे और दूसरी वस्तु के बीच के देश से कम होगा तो वह वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा 'अपर' कहलायेगी और दूसरी वस्तु 'पर'। इसी तरह जिस वस्तु के उत्पन्न होने के काल से आज तक का समय दूसरी वस्तु की उत्पत्ति से आज तक के समय की अपेक्षा अधिक है तो वह वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा 'पर' (दूर) कहलावेगी और दूसरी वस्तु 'अपर' (नज़दीक) मानी जायगी।

देशसम्बन्धी परत्व अपरत्व के ज्ञान के द्वारा यह ज्ञान होता है कि कौन सी वस्तु किस दिशा में है। और कालसम्बन्धी परत्व अपरत्व के ज्ञान से यह ज्ञान होता है कि कौन सी वस्तु की क्या वय है।

परत्व अपरत्व के ज्ञान में भी अपेक्षाबुद्धि की अपेक्षा होती है। जब तक दो तीन वस्तुओं के प्रति ये पृथक् पृथक् एक एक वस्तु हैं, ऐसा ज्ञान नहीँ होता तब तक कौन सा पर है और कौन सा अपर सो ज्ञान नहीँ हो सकता। और इन गुणों की उत्पत्ति में देशसंयोग कालसंयोग की भी आवश्यकता है। इसीसे अपेक्षाबुद्धि के नाश से संयोग के नाश से और वस्तुओं ही के नाश से इन गुणों का नाश माना गया है (प्रशस्तपाद पृ॰ १६४)

सुख (१२)

(सूत्र और भाष्य में अपरत्व के बाद 'बुद्धि' कहा है। परन्तु बुद्धि के प्रकरण में प्रत्यक्षादि सकल प्रमाण का निरूपण होगा इससे सन्दर्भ में त्रुटि हो जायगी इससे बाकी सब गुणों का निरूपण करके अन्त में बुद्धि का विचार होगा।)

'सुख' का लक्षण सूत्र में कुछ नहीं पाया जाता। भाष्य में 'अनुग्रह लक्षणं सुखम्' ऐसा लक्षण कहा है, अर्थात् जिससे अनुभव करने वाले के ऊपर किसी की कृपा सूचित हो। ऐसा अर्थ कंदली में पाया जाता है। परंतु लक्षण न्यायवोधिनी का ठीक मालूम पड़ता है। जिसके पाने की इच्छा स्वतंत्र उसी के लिये होती है, वही सुख है। सुख की इच्छा किसी दूसरे वस्तु की इच्छा पर नहीं निर्भर है। संसार में जितनी चीज़ों के पाने की इच्छा हम करते हैँ, वह केवल उन वस्तुओं ही के पाने के लिये नहीं, किन्तु उन चीज़ों से जो कुछ सुख, हमें मिलेगा उसी सुख की इच्छा से उन चीज़ों की