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वैशेषिक दर्शन।

संयोग होता है। इन्हीं दोनों संयोगों के द्वारा वर्णरूप शब्द की आकाश में उत्पत्ति होती है। ध्वनिलक्षण शब्द भी ढोल और लकड़ी के संयोग से और ढोल आकाश के संयोग से, आकाश में उत्पन्न होता है। जब शब्द किसी एक स्थान में उत्पन्न होता है वहां से शब्द के तरंग आकाश मंडल में एक के बाद एक क्रम से उत्पन्न होते हुए जब कर्णस्थ आकाश देश में पहुँच जाते हैं तब उस कर्ण से उस शब्द का ग्रहण होता है।

बुद्धि (२४)

'बुद्धि' ज्ञान का नामान्तर है। ज्ञान दो प्रकार के होते हैं—अविद्या और विद्या। अविद्या चार प्रकार की है, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, स्वप्न। संशय और अनध्यवसाय में भेद यह है कि यह जो मैं देखता हूँ सो चीज गाय है या बैल हैं ऐसा रूप संशय का है, जिसमें सन्दिग्ध दो पदार्थों का ज्ञान भासित होता है। अनध्यवसाय में किसी भी पदार्थ का ज्ञान भासित नहीं होता। 'यह क्या है' यही स्वरूप अनध्यवसाय का है।

विद्या चार प्रकार की है, प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति, आर्ष।

प्रत्यक्ष और अनुमान का वर्णन न्यायदर्शन प्रकरण में सविस्तर किया गया है। इससे पुनरुक्तिभिया यहां लिखना अनावश्यक है। नैयायिकों के 'शब्द' प्रमाण को वैशेषिकों ने अनुमान ही में अन्तर्गत माना है। जैसे अनुमान में व्याप्तिज्ञान से ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे ही शब्द ज्ञान में भी व्याप्तिज्ञान ही कारण है। जैसे अनुमितिज्ञान में साध्यसाधन की व्याप्ति ज्ञान का कारण होता है वैसा ही शब्द अर्थ की व्याप्ति का ज्ञान शाब्दज्ञान का कारण है। जब हम यह जान लेते हैं कि जहां घूम है वहां आग अवश्य है तभी घूम देखकर आग का अनुमितिशान होजाता है। उसी तरह जब हमको यह ज्ञान होजाता है कि 'घट' शब्द घड़ा ही का बोधक है, जब किसी आदमी को घड़ा की चर्चा करनी होगी तब 'घट' यही शब्द का उच्चारण करेगा, तभी हमको 'घट' शब्द के सुनने से घड़े का शब्दमान होगा।

उपमान को वैशेषिक "शब्द" में अन्तर्गत करते हैं। 'गाय के सदृश गवय है' यह जो शहरवाले आदमी को गवय को देखे बिना गवय