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शब्द।

अधिकतर धर्म करता है और थोड़ा सा अधर्म का अंश भी रहता है तब मरने पर ऐसे आदमी का आत्मा अपने अदृष्ट के अनुसार शरीर धारण करके ब्रह्मलोक में या इन्द्रलोक में या मनुष्य लोक ही में शरीर इन्दियों के द्वारा सुख भोग करता है। और जब इस के अधिक अधर्म और थोड़ा ही धर्म रहता है तब क्षुद्र जन्तुओं के शरीर में नाना प्रकार के दुःख भोग करता है। इसी तरह धर्म अधर्म के द्वारा आत्मा स्वर्ग लोक में या पृथिवी में सुख दुःख भोगने के लिये जन्मग्रहण करता है।

जब तत्त्वज्ञान प्राप्त होगया तब अज्ञान के नष्ट हो जाने से राग द्वेष भी नष्ट होजाते हैं। फिर इनके दूर होजाने से नया धर्म अधर्म उत्पन्न नहीं होता। पहिले का जितना धर्म अधर्म है उनके फल का जब भोग समाप्त हो जाता है तब वे धर्म अधर्म भी नष्ट होजाते हैं। आगे सुख दुःख उत्पन्न करनेवाले धर्म अधर्म तो होते ही नहीं फिर किस वास्ते ऐसे आत्मा का जन्म होगा। फिर वर्तमान शरीर के नष्ट होजाने पर उसका जन्म नहीं होता। यही उस आत्मा का 'मोक्ष' हुआ।

शब्द (२३)

शब्द आकाश का गुण है। इसका प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रिय से होता है। एक क्षणमात्र यह अवस्थित रहता है। इसका नाश इसी से उत्पन्न शब्दान्तर से होता है।

शब्द दो प्रकार का है—वर्णरूप और ध्वनिरूप। 'अकार', 'ककार' इत्यादि वर्णों के उच्चारण में जो शब्द उत्पन्न होता है सोही वर्ण-रूप है। शंख इत्यादि के बजाने से जो अस्पष्ट शब्द होता है उसी को 'ध्वनि' कहते हैं। वर्णलक्षण शब्द की उत्पत्ति स्मृति के द्वारा आत्मा मनस के संयोग से उत्पन्न होती है। पहिले वर्ण उच्चारण करने की इच्छा होती है, फिर उच्चारण करनेवाले का प्रयत्न, फिर इस प्रयत्नवान् आत्मा का शरीरस्थ वायु से संयोग, इस संयोग से वायु में चयन क्रिया—यह वायु उदर से ऊपर को चलकर कण्ठ तालु आदि सुख के नाना स्थानों में लगता है। इन स्थानों से वायु का संयोग होता है और फिर इन्हीं स्थानों से आकाश का