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वैशेषिक दर्शन।

ऊपर जाना सत्प्रत्यय उत्क्षेपण हुआ। [२] असत्प्रत्यय, अज्ञानपूर्वक जैसे मैंने जानकर एक रबरके गेंदा को ऊपर फेंका, यह तो सत्प्रत्यय कर्म हुआ लेकिन फिर गिर कर जो वह गेंदा उछला तो यह कर्म असत्प्रत्यय हुआ। ये दो तरह के कर्म चेतन शरीर में या तत्सम्बद्ध वस्तुओं ही में होगा। [३] अप्रत्यय, अचेतन द्रव्यों का कर्म।

कर्म के ये कारण हैं—[१] नोदन अर्थात् ढकेलना, जैसे पंक में पैर डाला तो पंक हिल जाता है। [२] गुरुत्व जैसे घट के आधार को हटा लिया तो घट अपने गुरुत्व के द्वारा नीचे गिर गया। [३] वेग या संस्कार, जैसे धनुष से छूटा हुआ वाण दूर तक चला जाता है। [४] प्रयत्न-मैने प्रयत्न किया तो मेरा हाथ उठ गया।

श्वास में जो वायु का गमन रूपकर्म होता है उसका कारण है जागते हुए प्राणी में आत्मा वायु के संयोगपूर्वक प्रयत्न। और सोते हुये प्राणी में आत्मा वायु संयोगपूर्वक प्रयत्न। जिस प्रयत्न से प्राणी जीवन धारण करता है।

आकाश काल दिक् आत्मा इनमें कर्म नहीं है, क्योंकि ये अमूर्त हैं। मूर्ति उन्हीं द्रव्यों में होती है जिनका परिमाण अल्प है। जो द्रव्य सर्वव्यापी है उसकी मूर्ति नहीं हो सकती। मन में मूर्ति है इसमें कर्म भी है। इसी मन के कर्म से मन का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है। आत्ममनः संयोग पूर्वक इच्छा या द्वेष से मन में कर्म उत्पन्न होता है। मन में अपसर्पण और उपसर्पण रूप कर्म होते हैं। आत्ममनःसंयोगपूर्वक अदृष्ट-द्वारा जब किसी आदमी के जीवनधारण में कारण भूत धर्माधर्म नष्ट होगये तब जीवनधारण का प्रयत्न भी बन्द हो जाता है। फिर उसके प्राण के निरोध में कारणभूत धर्माधर्म जोर डालते है। इन्हीं के जोर से आत्ममनःसंयोग द्वारा मृत शरीर से जो मनस निकल जाता है उसी कर्म को 'अपसर्पण' कहते हैं। उसी धर्माधर्म के द्वारा उस मन का उस आत्मा के अतिवाहिक (सूक्ष्म) शरीर से सम्बन्ध होता है। इसी शरीर और मनस के द्वारा उस आत्मा को स्वर्ग और नरक का भोग होता है। पुनः शरीर ग्रहण के कारण भूत धर्माधर्म के जोर का अवसर आने पर फिर वह मन दूसरे स्थूल