आकाश, काल, दिक्, आत्मा, इन का साधर्म्य यह है कि ये सर्वव्यापी हैं—इनका परिमाण परम है, ये इतने बड़े हैं कि जिस से बड़ा दूसरा नहीं हो सकता।
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इनका साधर्म्य है कि ये भूत है—एक एक बाह्य इन्द्रिय से ग्राह्य हैं। और इन्द्रियां इन्हीं के विकार हैं।
पृथिवी, जल, वायु, अग्नि इनका साधर्म्य है कि इनका स्पर्श होता है और ये ही समवाय कारण होते हैं।
पृथिवी, जल, अग्नि, का साधर्म्य है कि ये प्रत्यक्ष है, इन में रूप और द्रवत्व है।
पृथिवी, जल का साधर्म्य है कि इन्हीं में गुरुत्व और रस है।
पृथिव्यादि पांचों भूत और आत्मा, इनका साधर्म्य है कि इनके विशेष गुण होते हैं।
आकाश और आत्मा का साधर्म्य, हैं कि इनके जितने विशेष गुण हैं सब क्षणिक हैं और इनके एक एक अंशों ही में ये गुण रहते हैं।
दिक्, काल का साधर्म्य है कि कुल कार्यों के ये निमित्त कारण होते हैं।
पृथिवी, अग्नि का साधर्म्य है कि इनके नौमित्तिक द्रवत्व है।
रूप, रस, गन्ध,स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट और शब्द—ये २४ 'गुण' हैं अर्थात् ये चौबीस द्रव्यों में रहते हैं और इनका स्वयं कोई कर्म नहीं है। यही इनका साधर्म्य है।
उत्क्षेपण (ऊपर फेकना)—अपक्षेपण (नीचे फेकना)—आकुंचन (सकोड़ना)—प्रसारण (फैलाना) और गमन (जाना या चलना), ये पांच 'कर्म' हैं। कर्म वही है जिस से दो वस्तुओं का संयोग उत्पन्न होता है। इस से पांच कर्म जो गिनाये हैं उनका साधर्म्य यही है कि ये संयोग उत्पन्न करते हैं। घूमना-बहना-जलना-गिरना इत्यादि जितनी क्रियायें हैं वे सब 'गमन' के अन्तर्गत हैं।