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वैशेषिक दर्शन।

 

पर और अपर ये दो 'सामान्य' हैं—सामान्य उसको कहते हैं जो नित्य है, एक है, और अनेक वस्तु में एक काल में रहता है। अर्थात् जिसके द्वारा अनेक वस्तुओं का एक ज्ञान हो सकता है। इस से यहीं पर अपर का साधर्म्य हुआ।

'विशेष' वे हैं जिनके द्वारा नित्य द्रव्य में विभेद होता है। अर्थात् जिनके द्वारा भिन्न भिन्न परमाणु का भिन्न भिन्न ज्ञान उत्पन्न होता है। जितने नित्य द्रव्य हैं उतने ही विशेष भी हैं। इनका यही साधर्म्य है कि ये नित्य द्रव्यों में रहते हैं और भिन्न भिन्न व्यक्ति को भिन्न भिन्न ज्ञान उत्पन्न करते हैं।

जो चीजें कभी एक दूसरे से अलग नहीं पाई जातीं और जो एक दूसरे का आधार होती हैं—इनका जो यह नित्य सम्बन्ध है उस को 'समवाय' कहते हैं। जितने ऐसे सम्बन्ध हैं उनका यही साधर्म्य है कि वे 'समवाय' अर्थात् नित्य सम्बन्ध हैं।

 

 

पदार्थों के साधर्म्य यों हैं। अब इनके वैधर्म्य का विचार करते है। अर्थात् किस पदार्थ में क्या खास गुण है क्या खास लक्षण है जिस से वह और पदार्थों से भिन्न समझा जाता है, यह एक एक पदार्थ को लेकर निरूपण करेंगे।

द्रव्य।

पदार्थों में सब से पहिले 'द्रव्य' कहा है। और पदार्थों से द्रव्य का वैधर्म्य यही है कि यह गुणों का और कर्मों का आश्रय होता है और यही समवायि कारण होता है। (सूत्र १.१.१५)। द्रव्य नव हैं—पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन।

पृथिवी।

पृथिवी का वैधर्म्य है गन्ध—अर्थात् गन्ध एक ऐसा गुण है जो केवल पृथिवी में रहता है और किसी द्रव्य में नहीं (सू. २.२.२)। इस के अतिरिक्त और गुण पृथिवी में ऐसे भी हैं जो और द्रव्यों में