पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

नागदत्त १७६, रखना चाहा । अरस्तूने आदर्श गणकी जगह "आदर्श राजा चक्रवर्तीकी कल्पनाकी । क्या जाने यह यवन चक्रवर्ती पार्शव शाहंशाहको हराकर कहाँ तक जाय । | एक बार पैर बढ़ा देनैपर उसे रोकना अपने हाथमें नहीं रहता सोफी ! और उधर मेरा सहपाठी विष्णुगुप्त चाणक्य भी मगधमैं चक्रवर्ती खोजने गया था । "क्या यवन और हिन्दु चक्रवर्तियों का सिन्धुतटपर मिलन तो न होगा ?" पहिली पीढ़ीमें नहीं तो दूसरी पीढ़ीमें सोफी ! किन्तु, तब पृथिवी कितनी छोटी हो जायगी ।। समुद्रतटसे बह नावपर सलामी के लिए रवाना हुए। समुद्र शान्त था, हवा बिल्कुल रुकी हुई थी। सौफी और नागदत्त दोशताको पहिलेके इस समुद्रको बड़े कृतज्ञतापूर्णं हृदय से देख रहे थे, जबकि उसने पार्शवोंकी नौवाहिनीके ध्वंस करनेमें सहायता प्रदान की थी। समुद्र काफी दूर चले जानेपर एक भारी तूफान आया। दोनों अभी ख्यालमें थे, कि यह तो सौ साल पहिलैवाला तूफान है, उसी वक्त उनकी दृष्टि नौकारोहियोंके भयभीत चेहरों पर पड़ी, और फिर देखा कि पाल टूट गया, और नाव करवट होने लगी। स्थिति स्पष्ट थी। सोफीने इसी वक्त नागदत्तको अपनी भुजाओंसे वोध छातीसे लगा लिया, उसके चेहरेपर मुस्कुराहट थी, जब उसने कहा--मृत्यु तक । हो, मृत्यु तक कह नागदत्तने सोफियाकै औठोंपर अपनै ओठों को रख दिया, फिर दोनों चार भुजपाशों में बंध गए। दूसरे क्षण नाव उलट गई, दोनों सचमुच मृत्यु तक साथ रहे।