पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१८१

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११-५॥ का –१० ईसवी साकेत ( अयोध्या ) कभी किसी राजाकी प्रधान राजधानी नहीं बना । बुद्धकै समकालीन कोसलराज प्रसेनजित्का यहाँ एक राजमहल जरूर था; किन्तु राजधानी थी श्रावस्ती ( सहेटमहेट ), वहाँसे है योजन दूर । प्रसेनजितके दामाद अजातशत्रुने कोसलकी स्वतन्त्रताका अपहरण किया, उसी वक्त वस्तीका भी सौभाग्य जुट गया । सरयू-टपर बसा साकेत पहले भी नौ-व्यापारका ही नहीं, बल्कि पूरब ( प्राची ) से उत्तरापथ ( पंजाब ) के सार्थ-पथपर बसा रहनेसे स्थल-व्यापारका भी भारी केन्द्र था। यह पद उसे बहुत समय तक प्राप्त रहा। विष्णुगुप्त चाणक्यके शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्यने मगध के राज्यको पहले तक्षशिला तक, फिर यवनराज शैलाक्ष ( सैल्यूकस् ) को पराजित कर हिन्दूकुश पर्वतमाला ( अफ़ग़ानिस्तान ) से बहुत पच्छिम हिरात और आमू दरिया तक फैलाया । चन्द्रगुप्त और उसकै मौर्य-वैशके शासनमें भी साकेत व्यापार-केन्द्रसे ऊपर नही उठ सका । मौर्य-वंश-ध्वसके सेनापति पुष्यमित्रने पहले-पहल साकेतको राजधानीका पद प्रदान किया; किन्तु शायद पाटलिपुत्रकी प्रधानताको नष्ट करके नहीं । वाल्मीकिने अयोध्या नामको प्रचार किया; जब उन्होंने अपनी रामायणको पुष्यमित्र या उसके शृंगवशके शासन काल में लिखा था। इसमें तो शक ही नहीं कि अश्वघोषने वाल्मीकिके मधुर काव्यका रसास्वादन किया था। कोई ताज्जुब नहीं, यदि वाल्मीकि शृंग-वंशके आश्रित कवि रहे हों जैसे कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके, और शृंग-बैंशकी राजधानीकी महिमाको बढ़ाने ही के लिए उन्होंने जातकोंकै दशरथकी राजधानी