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दिवा


झुककर फूल चुनते तरुणपर नजर डाली। तरुणके भी वैसे ही सुनहले कैश थे, किन्तु तरुणी अपने कैशोंसे तुलना नहीं कर सकती थी, वह उसे अधिक सुन्दर जान पड़ते थे। तरुण और तरुणीका मुख घने पिंगलश्मश्रुसे ढंका हुआ था, जिसके ऊपर उसकी नासा, कपोल-भाग और ललाटकी अरुणिमा दिखलाई पड़ती थी। तरुणीकी दृष्टि फिर सूरकी पुष्ट रोमश भुजाओं पर पड़ी। उस वक्त उसे याद आया कैसे सूरने उस दिन एक बड़े दन्तैल सुअरकी कमरको इन्हीं भुजाओंसे पत्थरके फरसे द्वारा एक प्रहारमें तोड़ दिया था। उस दिन यह कितनी कर्कश थीं और आज इन फूलोंको चुनने में वह कितनी कोमल मालूम होती हैं। किन्तु उसकी मुसुकमें उछलती मुसरियाँ उसके पहुँचेमें उमड़ी नसे बाहुको विषम बनाती अबभी उसके बलका परिचय देती थीं। एक बार तरुणी के मन में आया, उठकर उब बाहों को चूम ले; हाँ उस वक्तवह उसे वह उसे इतनी प्यारी मालुम हो रही थीं। फिर दिवाकी दृष्टि तरुणकी जाँघों पर पड़ी। हर गतिमें उनकी पेशियाँ कितनी उछलती थीं। सचमुच चर्बीहीन पेशीपूर्ण उसकी जांघे, पृथु पेंडली और क्षीण घुट्टी दिवाको अनोखेसे मालूम होते थे। सूरने दिवाका प्यार पाने की कई बार इच्छा प्रकट की थी; मुंह से नहीं चेष्टासे। नाचों में उसने कई बार अपने श्रम, कौशल को दिखलाकर दिवा को प्रसन्न करना चाहा था, लेकिन दिवाने जहाँ जनके तरुणोंको कितनी ही बार अपनी बाहें नाचनेको दीं, कई बार अपने ओठ चूमनेको दिये, कई बार उनके अंकोंमें शयन किया, वहीं वेचारा सूर एक चुम्बन एक आलिंगन, क्या एक बार हाथ मिलाकर नाचनेसे भी वंचित रहा।

सूर अंजलीमें फूल भर अब दिवाकी ओर आ रहा था। उसका नग्न सर्वांग कितना पूर्ण था, उसका विशाल वक्ष, चर्बी नहीं पेशीपूर्ण कृश उदर कितना मनोहर था, इसका ख्याल आते ही दिवाको अफसोस होने लगा, उसने क्यों नहीं सूरका ख्याल किया। लेकिन, वस्तुतः इसमें दिवाका उतना दोष न था, दोष था सूरके मुंह पर लगे लज्जाके तालेका। —जिसने दर्वाजा खटखटाया उसके लिए वह खुला।