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२—दिवा

देश —वोल्गा-तट (मध्य), जाति —हिन्दी-स्लाव,
काल —३५०० ई० पू० ।

‘दिवा ! धूप तेज है, देख तेरे शरीर में पसीना। आ, यहाँ शिलापर बैठे।’

‘अच्छा, सूरश्रवा-।-।-।’ कह दिवा सूरश्रवा के साथ एक विशाल देवदारु की छाया में शिला-तलपर बैठ गई।

ग्रीष्म का समय, मध्याह्न की वेला फिर मृग के पीछे दौड़ना, इसपर भी दिवा के ललाटपर श्रमविन्दु अरुण मुक्ताफल की भाँति झलके, यह कैसे हो सकता था? किन्तु यह स्थान ऐसा था, जहाँ उनके श्रम के दूर होने में देरी नहीं लग सकती थी। पहाड़ी नीचे से ऊपर तक हरियाली से लदी हुई थी। विशाल देवदारु अपनी शाखाओं और सूची-पत्रों को फैलाये सूर्य की किरणों को रोके हुए थे। नीचे बीच-बीच में तरह-तरह की बूटियाँ, लताएँ और पौधे उगे हुए थे। जरा सा बैठने के बाद ही तरुण-युगल अपनी थकावट को भूल गये; और आस-पास उगे पौधों में रंग-बिरंगे फूल और उनकी मधुर गन्ध उनके मन का आकर्षण करने लगी। तरुणने अपने धनुष-बाण और पाषाण-परशुको शिलापर रख दिया, और पास में कल-कल बहते स्फटिक स्वच्छ जल-स्रोतके किनारे उगे पौधोंसे सफेद, बैंगनी, लाल फूलों को चुनना शुरु किया। तरुणीने भी हथियारोंको रख अपने लम्बे सुनहले केशोंमें हाथ डाला, अभी भी उनकी जड़ें आर्द्र थीं। उसने एक बार नीचे प्रशान्त प्रवाहिता बोल्गाकी धाराकी ओर देखा फिर पक्षियों के मधुर कलरवने उसका ध्यान क्षण भर के लिए अपनी ओर आकर्षित किया, और उसने