पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२०९

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२०६ वोल्गासे गंगा कई बार आँखोंके असुश्रको पोंछकर अश्वघोषने पत्रको समाप्त किया। उसके बाद पत्र उसके हाथसे गिर गया। वह खुद चारपाईपर बैठ गया। उसका हृदय सुन्न हो रहा था । हृदयकी गतिकै रुकनेकी वह तन्मय हो प्रतीक्षा कर रहा था। वह मिट्टीकी मूर्तिकी भाँति अन्य आँखोंसे ताकता रहा। कितनी ही देर तक इन्तज़ार करनेके बाद प्रभाके पिता-माता आए। उसकी उस अवस्थाको देख वह बहुत शंकित हो गए। फिर पासमें पड़े पत्रको उन्होंने पढ़ा। माँ के मुंहसे चीत्कार निकली और वह धरतीपर गिर पड़ी । दत्तमित्र नीरव अश्रुधारा बहाने लगे । अश्वघोष वैसे ही टकटकी लगाए देखता रहा। प्रभाके माँ-बाप देर तक उसकी यह अवस्था देख चुपचाप चले गए। शाम हुई, रात आ गईं; किन्तु वह वैसे ही बैठा रहा। उसके आँसू सूख गए और हृदयको काठ मार गया था। बड़ी रात गए वह वैसे ही बैठेबैठे ऊँघकर लेट गया ।। सबेरे जब प्रभाकी माँ आई, तो देखा कि अश्वघोष प्रकृतिस्थ हो किसी चिन्तामें बैठा है। भाँने पूछा-'मन कैसा है ? 'माँ, अब मैं बिल्कुल ठीक हैं। प्रभाने जो काम मुझे सौंपा है, अब मैं वही करूंगा। मैंने नहीं समझा था; किन्तु प्रभा जानती थी। वह मेरे कर्त्तव्यको बतला गई है । आत्म-हत्या नहीं, प्रभाने आत्म-दान दिया ! हाँ, उस आत्म-दानको आत्म हत्यामें बदलना मेरे हाथमें है; किन्तु मैं ऐसा कृतन्न नहीं हो सकता । भने अश्वघोषके भाजको समझा। अश्वघोष उठ खड़ा हुआ । माँने देखकर पूछाकहाँ चले, बेटा है। ‘भदन्त धर्मरक्षितसे मिलना चाहता हूँ और सरयूको देखना भी । ‘भदन्त धर्मरक्षित नीचे बैठे हैं और सरयू देखने मैं भी चलेगी।' ---कहते-कहते उसका गला भर आया। अश्वघोषने नीचे जा भदन्त धर्मरक्षितकी पंचप्रतिष्ठितसे वदना करके कहा-'भन्ते, सुझे अब संघमें शामिल कीजिए।