पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४६

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दुख २४५ सामने दास-दासियौंकी नरक-यातनाका चित्र खींचा। उसका दिल पिघल गया। फिर जब मैने कहा कि धन देकर इन सनातन--पीढ़ी-दरपीढ़ीके -- बन्दी मानवको मुक्ति प्रदान करना सबसे पुण्यकी बात है, तो यह उसके मनमें बैठ गया। बेचारी सरल-हृदया स्त्री दासताके भीतर छिपे बड़े-बड़े स्वार्थों की बात क्या जानती थी १ उसे क्या मालूम था कि जिस दिन भूमिको स्वर्गमें परिणत कर दिया जायेगा उसी दिन आकाशका स्वर्ग ढह पढ़ेगा । आकाश-पातालके स्वर्ग-नरकको कायम रखने के लिए, उनके नामपर बाज़ार चलानेके लिए, ज़रूरत है, भूमिके स्वर्ग-नरककी, राजा-रंककी, दास-स्वामीजी । राजाने अकेलेमे बातमी । उसने पहले तो कहा--'मै एक बार बहुत-सा कोष खर्चकर मुक्त तो कर सकता हूँ; किन्तु फिर ग़रीबीके कारण वह बिक जायेंगे। ‘आगेके लिए मनुष्यका क्रय-विक्रय दण्डनीय कर दें । फिर वह चुपचाप सोचने लगा। मैंने उसके सामने नागानन्द नागका दृष्टान्त दिया, जिसने दूसरे के प्राणको बचानेके लिए अपना प्राण देना चाहा । 'नागानन्द इर्ष राजाका बनाया नाटक कहा जाता है, क्या जवाब देता १ अाख़िरमें यहीं पता लगा कि दास-दासियोंको मुक्त करनेमे उसका उतनी क ति मिलनेकी आशा नहीं, जितनी कि श्रमण-ब्राह्मणोंकी झोली भरने या बड़े-बड़े मठ-मन्दिरोंके बनानेमे । मुझे उसी दिन पत्ता लग गया कि वह शीलादित्य नहीं, शीलान्धकार है। बेचारे शीलादित्यको ही मैं क्यों दोष द १ आजकल कुलीन, नागरिक होनेका यह लक्षण हैं कि सब एक दूसरेकी वंचना करें । पुरानै बौद्ध-ग्रन्थोंमे बुद्धकालीन रीति-रवाजको पढ़कर मैं जानता हूँ कि पहले मच्च पीना वैसा ही था, जैसा कि पानी पीना । न पीनेको उस वक उपवास-ब्रत मानते थे। आजकल ब्राह्मण मद्य-पानको निषिद्ध मानते हैं, और खुलकर पीना आफत मोल लेना है; किन्तु इसका परिणाम क्या है ? देवताके नामपर, सिद्धि-साधनाके नामपर छिपकर