पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४५

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वोलाासै गंगा 'तो हताश हो बैठ जाना चाहिए ?। | ‘बैठ जाना लोक-वचनासे कहीं अच्छा है। देखते नहीं, जिन्हें मार्गदर्शक होना चाहिए, वह कितने लोक-बचक हैं ? और यह अवस्था सिर्फ एक देशकी नही, सारे विश्वकी मालूम हो रही है। सिंहल, सुवर्णद्वीप, यद्वीप, कम्बोजद्वीप, चम्पाद्वीप, चीन, तुषार, पारस्य-. अहाँकै विद्वान् विद्यार्थी हमारे नालन्दा नहीं हैं। उनसे बात करनेसे मालूम होता है कि लोक अन्धा बना दिया गया हैं-'ग्ि व्यापक तमः ।। धर्मकीतिने सहस्राब्दियों तक जलते रहनेवाले शुब्दाङ्गारोको फेक इस निशान्धकारको दूर करनैकी कोशिश की; किन्तु तत्काल तो उसका मुझे कोई असर होता नहीं दिखलाई देता । मैंने नै किया, बलती हुई दीपयष्टियों (मशालों ) को फेंकनेका । इसका एक फल तो यह हुआ कि मै दुर्मुख बन गयो । यहाँ यह साफ़ कर देना चाहता हूँ कि अपनी जीभको इस्तेमाल करने में मुझे भी राजसत्तापर सीधे प्रहार न करनेका खयाल रखना पड़ता है, नहीं तो दुर्मुखको मुख दस दिनों में बन्द कर दिया जाय । फिर भी आँख बचाकर कभी-कभी मैं दूर तक चला जाता हैं। आखिर इसका क्या अर्थ है, तुम मरनेकै बाद मुक्ति और निर्वाण दिलानेकी बात करते हो, और यहाँ जो लाखों दास पशुओंकी भाँति बँधै बिक रहे हैं. उन्हें मुक्त करने की कोशिश क्यों नहीं करते है मैंने एक बार प्रयाग के मेलैपर राजा शौलादित्यसै थही सवाल किया था-- 'महाराज, तुम जो बड़े-बड़े धनी विहारों और ब्राह्मणोंको पाँचवें साल इतना धन बाँट रहे हो, इसे दास-दासियोंको मुक्त करानेमै लगाते, तो क्या वह कम पुण्यको काम होता है। शीलादित्यने दूसरे समय बात करनेकी बात कहकर टालना चाहा। किंन्तु मैंने दूसरा समय भी निकाल लिया, और निकालनेका मौका राजाकी बहन भिक्षुणी राज्यशीने जबर्दस्ती दिलाया। मैंने राज्यश्रीके