पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५६

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चक्रपाणि जयचन्द्र कविका हाथ पकड़ आस्थानशाला (दरबारहाल)से निकल क्रीडोद्यानकी और चल पड़े। ग्रीष्मका प्रारम्भ था। हरे-हरे वृक्षको धीरे-धीरे कम्पित करनेवाला समीर बड़ा सुहावना मालूम हो रहा था। राजाने दीर्घिका (पुष्करिणी,के सोपानके ऊपर रखे शुभ्र मर्मरशिलासन पर बैठ वगलके आसनपर कविको बैठने के लिए कहा और फिर वात शुरू की-तुम रातकी क्या पूछते हो, कवि ! अब तो मैं अनुभव करने लगा हूं कि मै दरअसल बूढा हूँ। 'नग्न सुन्दरियाँ भी मेरे कामको नहीं जगा सकतीं ।' 'तब तो महाराज, आप पूरे योगी हैं।' इस योगीके पासळी यह सोलह हज़ार सुन्दरियाँ क्या करेंगी ?' 'बाँट दें, महाराज ! बहुतसे लेनेवाले मिल जायेंगे, या ब्राह्मणको गंगा-तटपर जलकुश ले दान कर हैं, “सर्वेषामेव दानस्ता भाग्योदानं विशिष्यते ।। | वही करना पड़ेगा । वैद्यराज चक्रपाणिका बाजीकरण रस तो निष्फल ही गया । अब सिर्फ तुम्हारे काव्यरसकी एकमात्र आशा है।। | नग्न सौन्दर्य-रस जहाँ कुण्ठित हो, वहाँ काव्य-रस क्या करेगा ? और अब फिर महाराज, आप साठ सालसे ऊपर हो गए हैं । ‘साठा तो पाठा होता है, कवि ! कौन ? क्या सोलह सहस कलोरियका चिरविहारी वृषभ है। 'तुम काशी (बनारस)में दिखलाई नहीं दिए, मुझे कन्नौजसे आए दो मास बीत गए । 'महाराज, मैं चैत्र नवरात्रमे भगवती विंध्यवासिनीके चरणम गया था । ‘मेरी नाव विन्ध्यवासिनीके घामसे ही गुज़री । जानता, तो बुला लेता ।। था वहीं उतरकर कुमारी-पूजामे व्यस्त हो जाते ।