पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५५

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३५४ वोगासै गगह किये बिना नहीं रहती; किन्तु, यहाँ उनका शरीर-प्राण इस बूढेके हाथ था। कोई उनके दन्त-रहित ओठोंमें अपगे ओठोंको दे रही थी, कोई उनके पास अपने स्तनोको पीड़ित कर रही थी, कोई उनकी रौमश भुजाओंको अपने कन्धो और कपलोंसे लगा रही थी। कामोत्तेजक गीतके साथ नृत्य शुरू हुआ । रानियों और परिचारिकाओंके बीच अपनी उछलती तोंद लिए महाराज भी नाचने लगे । ‘आइए कवि चक्रवर्ती !" कह राजाने एक अधेड़ पुरुषके लिए असनकी ओर संकेत किया, और बैठ जानेपर पानके दो बड़े बड़े सम्मानके साथ प्रदान किये । कवि चक्रवर्तीकी आयु पचाससे उपर थी । उनके गौर भव्य चेहरे पर अब भी उजड़े वसन्तकी छाप थी । उनकी में छे अब भी काली थीं। उनके शरीरपर सफेद धोती और सफेद चादरके अतिरिक्त रुद्राक्षको एक सुन्दर माता तथा सिरपर भस्मका चन्द्राकार त्रिपुण्ड था। कविने सुवासित सुवर्ण पत्रवेष्टित पान मुंहमें रखते हुए कहा'देव, यात्रा क्षेमसे तो हुई १ शरीर स्वस्थ तो था १ रातें सुखकी नींद तो लाती हैं न है । ‘अब पौरुष थकता जा रहा है, कवि-गव ! *महाराज, आप अपने कवि श्रीहर्षका खूब उपहास करते हैं।' पुगव उपहास नहीं, प्रशंसाका शब्द है। ‘पुगव बैलको कहते हैं, देव । ‘जानता हूँ, साथ ही श्रेष्ठको भी कहते हैं । 'मैं तो इसे बैलके अर्थमें ही लेता हूँ। • और मैं श्रेष्ठके अर्थमें । फिर कवि-मित्र, तुम्हारे जैसे नरम सचिव । (लॅगोटिया यारसे उपहास-परिहास नहीं किया जाय, तो किससे किया जाय ? दरबारमे तो नहीं, महाराज ! श्रीहर्षने धीरे से कहा ।