पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५८

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चक्रपाणि भी माथा चकराता है, किन्तु यह दर्शन तो पत्थरकी तरह मेरे सिरपर बोझा बना हुआ है। तो भी महाराज, नागार्जनको दर्शन बड़े कामका है। वह बहुतसी मिथ्या धारणाको दूर कर देता है। लेकिन तुम तो वेदान्ती प्रसिद्ध हो, कवि ! मैंने अपने अन्थको वेदान्त कहकर ही प्रसिद्ध किया है, महाराज, किन्तु, जन खंडन खंड खाद्य में नागार्जनकी चरण-धूलिको ही सर्वत्र वितरित किया है। | याद तो रहनेका नहीं, फिर भी बतलाओं, नागार्जनमें क्या क्लास बात है । 'सिद्धराज मित्रपाद नागार्जुनके ही दर्शनको मानते हैं। 'मेरे दीक्षा-गुरु १० ‘हाँ, नागार्जुन कहते हैं--पाप-पुण्य, आचार-दुराचार सभी कल्पनाएँ हैं। जगत्की सत्ता-असत्ता कुछ भी सिद्ध नहीं की जा सकती स्वर्ग-नरक और वन्धन-मोक्ष बालकों के भ्रम हैं। पूजा उपासना पामरों की वंचनाके लिए हैं। देव-देवीकी लोकोत्तर कल्पना मिथ्या है।' ‘जीवन तो मैंने भी इसी दर्शनमें बिताया है, कवि !' सभी बिताते हैं, महाराज नकद छोड़ उधारके पीछे मूर्ख दौड़ते हैं।

  • लेकिन अब तो नक़दको सामने रखकर टुकुर-टुकुर ताकना है। मित्र ! फ तुम तो अभी घिसते नहीं मालूम होवे ।।

मैं आठ वर्ष छोटा भी तो हूँ, महाराज ! फिर मैंने एक ब्राह्मणीसे ज़्यादा ब्याह नहीं किया। ‘ब्याह करनेसे क्या होता है ? इतने व्याह करनेपर तो भवरों में ही आदमी थककर मर जाय । मेरे घरमें एक ही ब्राह्मणी है, महाराज !! और दुनिया विश्वास कर लेगी कि कवि श्रीहर्ष उसी बँतही बुढ़ियापर सती हो रहा है।