पृष्ठ:शशांक.djvu/१०६

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०- ( ८६ ) देशा To-अब मैं अपने मुँह से क्या कहूँ ? तरला—यही जो मैंने तुम्हें बूढ़ा कहा ? देशा० -अच्छा ! अब तुम नगर की ओर जाओ। प्रेम सेम का कुछ काम नहीं, मैं भी लौट जाता हूँ। तरला-बाबा जी, रूठ क्यों गए ? तुम्हारे ऐसे बहुदर्शी आचार्य के लिए थोड़ी थोड़ी बातों पर चिढ़ जाना ठीक नहीं । देशा० 10-तरला ! अब तुम्हें सचमुच रस का बोध हुआ। युवा- वस्था में जो प्रेम होता है वह प्रेम नहीं है, आभास मात्र है । जब तक वयस् कुछ अधिक नहीं होता तब तक मनुष्य प्रेम की मर्यादा नहीं समझ सकता । जैसे.. तरला-जैसे दूध पककर खोया होता है, जो दूध से अधिक मीठा होता है। देशा-बहुत ठीक कहा । मेरे मन की बात तुमने खींच निकाली। तुम्हारी इन्हीं सब बातों पर न मैं लट्ट हूँ-मर रहा हूँ। तरला ने देखा कि आचार्य की व्याधि धीरे धीरे बढ़ रही है। उसके प्रेम के बढ़ते हुए स्रोत को रोकना चाहिए । वह आचार्य से बोली “छि ! छि ! बाबा जी, आप करते क्या हैं ? मैं एक सामान्य स्त्री हूँ, दासी हूँ। मुझसे आपको ऐसी बात कहनी चाहिए ? आप परमपूज्य आचार्य हैं | आपने भगवान् बुद्ध की सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग किया है। आपके मुँह से ऐसी बात नहीं सोहती ।" देशा 0-तरला ! मैं मर रहा हूँ। चाहे मैं कोई हूँ, मेरा जीवन अब तुम्हारे हाथ है, चाहे रखो चाहे मारो। यदि तुम कृपादृष्टि न करोगी तो प्राण दे दूंगा। तरला मन ही मन हँसी, समझी कि रोग के सब लक्षण धीरे धीरे प्रकट हो गए। उसे चुप देख देशानंद ने उसके दोनों पैर पकड़ लिए