पृष्ठ:शशांक.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(८५) देशा देशा०-क्यों तरला ? यह स्थान तो अच्छा है। तरला-कोई हम दोनों को यहाँ एक साथ देखेगा तो चारों ओर निंदा करेगा। 10-यह तो ठीक है। तरला-अच्छा तो मैं चली हूँ, तुम यहीं रहो । देशा०-तुम अभी लौटोगी न ? तरला-सो कैसे ? मैं तो जाती हूँ नगर की ओर फिर इधर क्या करने आऊँगी? देशा०-अरे नहीं, तरला । तुम जाओ मत, थोड़ा ठहरो । मैं तुम्हें आँख भर देख तो लूँ। तुम्हारे ही लिए मैं दो कोस दौड़ा आया हूँ! तरला-तुम तो कहते थे मैं आग लेने निकला था। देशाः -वह तो एक बात का ब्रतक्कड़ था। बात कुछ और ? तरला-क्या बात है, बताओ। देशा-हृदय की पीड़ा । तरला-किसके लिए? देशा०-तुम्हारे लिए। तरला-देखती हूँ, इस बुढ़ाई में भी तुम्हारे हृदय में रस उमड़ा पड़ता देशा०-छि ! तरला ! यह क्या कहती हो ? मै तो समझता था कि तुममें कुछ रसिकता होगी । पर...... तरला-चिढ़ क्यों गए ? क्या हुआ ? देशा०-तुम्हारी बात सरा अरतिकता की हुई। तरला-कौन सी बात?