पृष्ठ:शशांक.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(८८) तरला-तो मैं भी तुम्हारे ही ध्यान में हूँ। देशानंद ने तरला का हाथ पकड़ लिया और बोला "सच कहो, तरला! एक बार फिर कहो । सच सच कहो” । तरला-बाबाजी ! क्या करते हो, हाथ छोड़ो, हाथ छोड़ो, कहीं कोई आ न जाय । देशानंद ने उदास होकर हाथ छोड़ दिया और कहा "अच्छा तो मुझे कब उत्तर मिलेगा ?" तरला-कल। देशा-निश्चय ? तरला-निश्चय । देशा०-तो चलो तुम्हें घर पहुँचा आऊँ । तरला-अच्छा, आगे आगे चलो। वृद्ध आगे आगे चला । धीरे धीरे नगर का प्रकाश सामने दिखाई पड़ा। नगर में जाकर तरला निश्चिंत हुई। घर के पास पहुँचकर तरला ने सोचा कि अब बुड्ढे को लौटाना चाहिए। यदि वह मेरे सेठ का घर देख लेगा तो मेरे कार्य में बाधा पड़ सकती है। कुछ दूर आगे निकल कर वह वृद्ध से बोली “अब तुम मत आओ, लौट जाओ। मेरा पति कहीं तुम्हारे ऐसे युवा पुरुष- के साथ मुझे देख पाएगा तो अनर्थ कर डालेगा।" तरला उसे युवा पुरुष समझती है, बुड्ढा तो इसी बात पर लहालोट हो गया, उसे अपने शरीर तक की सुध न रही । तरला उसका ध्यान दूसरी ओर देख चलती बनी । बहुत हूँन्डने पर भी बुड्ढे ने उसे कहीं न पाया