(६५) धवल ने युवराज को गोद में लेकर बार-बार उनका मस्तक चूमा और उन्हें ले जाकर उनके सिंहासन पर बिठाया । सिंहासन के सामने खड़े होकर वृद्ध यशोधवल देव बोले “महाराजा- धिराज ! आज बहुत दिनों पर मैं सम्राट की सेवा में क्यों आया हूँ, यही निवेदन करता हूँ। मेघनाद ( मेघना नदी ) के उस पार साम्राज्य की सेवा में कीर्तिधवल ने अपने प्राण निछावर किये । अब उसकी कन्या का पालन मैं नहीं कर सकता। उसके भरण-पोषण की सामर्थ्य अब मुझ में नहीं है । जिस हाथ में साम्राज्य का गरुड़ध्वज लेकर विजय यात्राओं का नायक होकर निकलता था, जिस हाथ में सदा खड्ग लिए साम्राज्य की सेवा में सन्नद्ध रहता था, अब उसी हाथ को रोहिताश्ववालों के आगे एक मुट्ठो अन्न के लिए फैलाते मुझ से नहीं बनता। अब इस अवस्था में नई बात का अभ्यास कठिन है। कीर्तिधवल ने सम्राट की सेवा में ही अपना जीवन उत्सर्ग किया है। सम्राट् यदि उसकी कन्या के अन्न-वस्त्र का ठिकाना कर दें तो यह बूढा यशोधवल निश्चित हो जाय । साम्राज्य में अभी अस्त्र शस्त्र की पूछ है, वृद्ध की भुजाओं में अभी बल है, खड्ग धारण करने की क्षमता है, इससे वह अपना पेट भर लेगा, उसे अन्न का. अभाव न होगा। वृद्ध मृग मांस से भी अपना शरीर रख सकता है । पर महाराज ! इस कोमल बालिका से पशु मांस नहीं खाया जाता। इसके लिए गेहूँ भीख माँगा, अन्नाभाव से दुर्ग- स्वामिनी का कंगन बेचा। कई पुराने सेवक मेरी यह दशा सुन भीख माँग-माँग कर कुछ धन इकट्ठा कर लाए। उसी धन से मैंने कंगन छुड़ाया और किसी प्रकार पाटलिपुत्र भाया । महाराजाधिराज ! लतिका प्रासाद में दासी होकर पड़ी रहेगी, उसे मुट्ठी भर अन्न मिल जाया करेगा, उससे हिरन का मांस नहीं खाया जाता । यशोधवल से अब इस बुड़ापे में भीख नहीं मांगी जाती। मालव गया, वंग गया, पुत्रहीन यशोधवल के पास अब ऐसा कोई नहीं है जो पहाड़ी गाँवों में जाकर ,
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