पृष्ठ:शशांक.djvu/१२३

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पंद्रहवाँ परिच्छेद राजनीति गंगाद्वार के बाहर घाट की एक चौड़ी सीढ़ी पर सम्राट उनके सामने यहाँ से वहाँ तक बालू का मैदान है। दूर पर जाह्नवी की धारा क्षीण रेखा के समान दिखाई पड़ रही है । सम्राट् घाट पर बैठे बैठे बालक बालिकाओं की जलक्रीड़ा देख रहे हैं। एक प्रतीहार आया और अभिवादन करके बोला “महानायक यशोधवलदेव इसी समय महाराज के पास आना चाहते हैं" सम्राट ने कहा “अच्छा, उन्हें यहीं ले आओ"। प्रतीहार अभिवादन करके चला गया और थोड़ी देर में यशोधवल को लेकर लौट आया । सम्राट ने हँसते हँसते पूछा “कहो भाई यशो. धवल ! क्या हुआ ?' वृद्ध प्रणाम कर ही रहे थे कि सम्राट ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया । यशोधवल सम्राट के सामने बैठ गए और हाथ जोड़कर बोले "महाराजाधिराज ! मेरे न रहने पर लतिका के लिए कहीं ठिकाना न रहेगा, यही समझकर मुट्ठी भर अन्न माँगने मैं महाराज की सेवा में आया था। किंतु यहाँ आकर देखता हूँ कि उच्च- वंश के जितने लोग हैं, प्रायः सब के सब भिखारी हो रहे है। उनके अनाथ बालबच्चों के आश्रय महाराज ही हो रहे हैं। किंतु आपके बाल भी अब सफेद हुए, आपके दिन भी अब पूरे हो रहे हैं। आपके न रहने पर साम्राज्य और प्रजावर्ग की क्या दशा होगी, यही सोचकर मैं अधीर हो रहा हूँ। इस समय लतिका की सारी बातें मैं भूल गया हूँ। .