(१०७) रहा, छाया के नहीं कह सकते। नागरिक बराबर कहते हैं कि स्थाण्वीश्वर के जाने के पीछे सम्राट के मुँह पर कभी हँसी नहीं दिखाई दी। सम्राट-बात ठीक है प्रभाकर का आना सुनते ही मेरा चित्त ठिकाने न रहा । प्रभाकर जितने दिनों तक नगर में मैं समान उसके पीछे लगा फिरता रहा, दास के समान उसकी सेवा करता रहा, भृत्य के समान उसका तिरस्कार सहता रहा। यशोधवल ! मैं इस बात को भूल गया था कि गुप्त साम्राज्य का अधीश्वर हूँ, समुद्रगुप्त का वंशज हूँ और प्रभाकर मेरा भानजा है। बात बात में उसके अनुचर मेरे राजम्कर्मचारियों का अपमान करते थे। एक साधा- रण झगड़ा लेकर उन्होंने हमारी सेना पर आक्रमण किया, नगर में घुस कर लूटपाट की, नागरिकों को मारा पीटा; अंत में जब असह्य हो गया तब नागरिकों ने भी उनपर धावा किया और उनके डेरे जला दिए । यशोधवल ! क्या यही सब अपमान सहने के लिए वीर यज्ञवर्मा ने लौहित्या के तट पर मेरी प्राणरक्षा की थी? यशो०-महाराज ! मैं सब सून चुका हूँ। नगर में आकर जो जो बातें मैंने सुनीं वे पहले कभी नहीं सुनी गई थीं। सब सुनकर ही मेरी आँखें खुली हैं। महाराजाधिराज ! अब आज्ञा दीजिए, मैं फिर राज्य का कार्य अपने ऊपर लूँ। सम्राट-तुम राज्य का कार्य ग्रहण करो, इससे बढ़कर मेरे लिए कौन बात होगी ? इसमें भी मेरी अनुमति पूछते हो ? मैं अभी मंत्र सभा बुलाता हूँ। यशो०-मंत्रणासभा बुलाने की आवश्यकता नहीं। केवल हृषीकेश शर्मा और नारायण शर्मा के आ जाने से ही सब काम हो जायगा । सम्राट-अच्छी बात है। प्रतीहार ! ।
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