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पृष्ठ:शशांक.djvu/१२६

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(१०६) यशोधवल ने धीरे धीरे कहा “आप को कुछ नहीं करना है। एक दिन यह सेवक महाराजधिराज की आज्ञा से साम्राज्य के सब कार्य करता था । इन सूखे हुए हाथों में यद्यपि पहले का सा बल अब नहीं रहा है, किंतु हृदय में अब तक बल है । महाराजाधिराज की आज्ञा हो तो यह दास राजकार्य का भार ग्रहण करने को प्रस्तुत है। कीर्ति- धवल ने साम्राज्य के हित के लिए अपना शरीर लगा दिया। उसका वृद्ध पिता भी वही करना चाहता है। आया तो था लतिका के लिए अन्न का ठिकाना करने, पर आकर देखता हूँ कि अन्नदाता का घर भी बिगड़ा चाहता है। उसे कौन आश्रय देगा ? हृषीकेश शर्मा और नारायण शर्मा अपने पद पर ज्यों के त्यों बने रहें। मैं आड़ में रहकर ही सम्राट की सेवा, जहाँ तक हो सके, करना चाहता हूँ"। सम्राट सिर नीचा किए न जाने क्या क्या सोच रहे थे। कुछ देर पीछे सिर उठाकर उन्होंने कहा "यशोधवल ! सच कहो, राजकार्य का भार तुम अपने ऊपर लोगे?" यशोधवल 8~दास कभी महाराज के आगे झूठ बोल सकता है ? सम्राट्यशोधवल ! रात दिन की चिंता से इधर बहुत दिनों से मेरी आँख नहीं लगती। आगे क्या होगा, यही सोच कर मेरी दशा पागलों की सी हो रही है। तुम यदि कार्यभार ग्रहण कर लो तो. मैं सचमुच निश्चित हो जाऊँ। यशो-मैं सब बातें देख रहा हूँ। भविष्यत् की चिंता महाराज को सदा व्याकुल किए रहती है, इस बताने की आवश्यकता नहीं । भय के मारे कोई राजकर्मचारी महाराज के पास नहीं आता । काम बिगड़ता देखकर भी किसी को यह साहस नहीं होता कि महाराज के पास आकर कुछ पूछे और आज्ञा की प्रार्थना करे । हृषीकेश शर्मा भी, जिनका राजकार्य में ही सारा जीवन बीता है, सामने आकर कुछ