पृष्ठ:शशांक.djvu/१३२

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(११२ ) इसका ध्यान करो । उसकी प्रतिहिंसा अत्यंत भयंकर है। महास्थविर ! अब तो मैं पाटलिपुत्र में नहीं ठहर सकता । मैं वंगदेश की ओर चला जाता हूँ । वहाँ रहकर जो काम होगा, निश्चिंत होकर कर सकूँगा। बुद्ध-संघस्थविर ! क्या पागल हुए हो ? भला इस विपति के समय में तुम पाटलिपुत्र छोड़कर चले जाओगे ? तुम अपने इस क्षणिक जीवन के लोभ में संघ का बना बनाया काम बिगाड़ोगे? यह कभी हो नहीं सकता । यदि मरना ही है तो संघ के कार्य के लिए मरो। तुम्हारे पहले न जाने कितने महास्थविर, न जाने कितने भिक्खु संघ के लिए प्राण दे चुके हैं । उन्होंने संघ की सेवा में अपने प्राण दिए, तभी संघ का अस्तित्व अब तक बना हुआ है। पहले तो कभी मृत्यु के भय ने तुम्हें नहीं घेरा था। इस समय तुम इतने व्याकुल क्यों हो रहे हो ? बंधु-महास्थविर ! साधारण मृत्यु से तो बंधुगुप्त कभी डरनेवाला नहीं, यह बात तो आप भी जानते हैं । पर यशोधवल के हाथ से जो -बाप रे बाप!-वह अत्यंत भीषण होगी, अत्यंत यंत्रणा- मय होगी। उसकी अपेक्षा तो हज़ार बार कुठार पर कंठ रखकर मरना अच्छा है । वंगदेश से मैं निश्चिंत होकर संघ की सेवा कर सकूँगा। दूत और पत्र के द्वारा मंत्रणा में योग देता रहूँगा। बुद्ध०-ऐसा नहीं हो सकता; बंधुगुप्त । यह बात मेरी समझ में नहीं आती । हाँ, यदि इस विपत्ति के समय में तुम संघ को छोड़ देना चाहते हो तो चले जाओ। बंधुगुप्त सिर नीचा किए बैठे रहे । फिर धीरे धीरे बोले "महास्थविर ! आपका इसमें कोई दोष नहीं है। हम सब भाग्यचक्र में बँधे हैं । यह सब मेरे अदृष्ट का फल है। अच्छा, तो मैं न बाऊँगा"। धीरे धीरे पूर्व दिशा में ईंगुर की सी ललाई फैल चली । एक भिक्खु ने आकर कंठ से एक प्रकार का शब्द निकाला और कहा मृत्यु होगी-