पृष्ठ:शशांक.djvu/१३३

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"देव ! अब इस स्थान पर ठहरना ठीक नहीं है। सूर्योदय के साथ ही रास्ते में लोग इधर उधर चलने लगे हैं"। तीन के तीनों उठ पड़े और तीन ओर को चले। चलते समय बुद्धघोष ने कहा “संघस्थविर ! घबराना नहीं । मैं स्वयं जाकर इसका प्रबंध करता हूँ कि यशोधवल तुम्हारे पास तक न पहुँच सके । अब से उस पुराने मंदिर के भुइँहरे (भूगर्भस्थगृह ) को छोड़ और कहीं मंत्रणासभा न होगी”। बुद्धघोष के चले जाने पर शक्रसेन ने हँसते हँसते कहा "स्थविर ! तुम तो भाग्यचक्र को कुछ नहीं समझते थे न ?” बंधुगुप्त ने कोई उत्तर न दिया । सत्रहवाँ परिच्छेद तरला का संवाद "तरला ! तू कल कहाँ थी ? मैं तेरे आसरे में रात भर सोई नहीं, रात भर जंगले के पास बैठी रही। माँ ने पूछा, कह दिया बड़ी ऊमस है। तू कल आई क्यों नहीं?" जिसने यह बात पूछी वह पूर्ण युवती थी, अवस्था बीस वर्ष से - कुछ कम होगी । तपाए हुए सोने का सा रंग और गठीला शरीर था । सौ बात की एक बात यह कि वह असामान्य सुंदरी थी, उसका सा रूप संसार में दुर्लभ समझिए । सूर्योदय से दो दंड पीछे तरला घर लौटकर आई। आते ही वह सीधे अपने प्रभु की कन्या के पास