पृष्ठ:शशांक.djvu/१३५

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(११५ ) युवती ने उसे हृदय से लगा लिया। तरला ने कहा "क्या यही मेरा पुरस्कार है ?" युवती ने उत्तर दिया “और पुरस्कार तेरा नागर आकर देगा। "मेरा नहीं, तुम्हारा" "मेरा क्यों, तेरा; जिसके लिए तू अभिसारिका हो कर गई थी। "अरे वह तो एक बुड्डा बंदर है। कल रात को उसके गले में रस्सी डाल आई हूँ; किसी दिन जाकर नचाऊँगी।" "यह सब तो तेरी बात है । सच सच बता, उनसे भेंट हुई थी ?" "सच नहीं तो क्या झूठ ?" युवती ने तरला का हाथ पकड़ उसे खिड़की के पास बैठाया और आप भी वहीं जा बैठी । तरला धीरे धीरे गुनगुनाने लगी- जोगी बने पिय पंथ निहारत भूलि गई चतुराई । युवती ने झुझलाकर तरला के गाल पर एक चपत जमाई। तरला हँस पड़ी और बोली "और मैं क्या बताऊँ ?” युवती रूठ गई और मुँह फेरकर अलग जा बैठी । तरला मनाने लगी “यूथिका देवी ! इधर देखो। अच्छा लो, अब कहती हूँ।” युवती को मन चट पिघल गया । उसने तरला की ओर मुँह किया । तरला कहने लगी "आज सचमुच उनसे भेंट हुई। पहले तो मैंने उनके पिता के पास जाकर कहा कि मेरी सेठानी जी ने सेठ वसुमित्र के पास कुछ रत्न परीक्षा के लिए भेजे थे, वे रत्न कहाँ हैं । आप कुछ बता सकते हैं ? बुड्ढा चकपका उठा और बोला कि मैं कुछ भी नहीं जानता; वसुमित्र तो मुझसे कुछ भी नहीं कह गया है। बुड्ढा एक प्रकार से स्वभाव का अच्छा है, उसके मन में छल कपट नहीं है। उसे मेरी बात पर विश्वास आ गया और उसने चट वसुमित्र का ठिकाना बता दिया । बुड्ढा मेरे साथ एक आदमी किए देता था। मैंने देखा, यह तो भारी विपचि लगी। किसी प्रकार बुड्ढे