पृष्ठ:शशांक.djvu/१४

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लोग । ये हिंदू राजाओं के विरुद्ध षडयंत्र में अनन्य योग देते रहे होंगे। हिंदुओं में उस समय संन्यासियों का ऐसा दल नहीं था, इस प्रकार की संघव्यस्था नहीं थी। यही देख शंकराचार्य ने संन्यासियों के संघ का सूत्रपात्र किया जिसके पल्लवित रूप आजकल के बड़े बड़े अखाड़े और संगते हमारे सामने हैं ।

एक बात और भी कही जा सकती है। बौद्ध धर्म का प्रचार भारतवर्ष के बाहर शक, तातार, चीन, भोट, सिंहल आदि देशों में पूरा पूरा था। कनिष्क आदि शक राजाओं से बौद्धधर्म को बड़ा भारी सहारा मिला था। इससे जब विदेशियों का आक्रमण इस देश पर होता तब ये बौद्ध भिक्षु उसे उस भाव से नहीं देखते थे जिस भाव से भारती जनता देखती थी। अतने मत की वृद्धि के सामने अपने देश का उतना ध्यान उन्हें नहीं रहता था। इसी कारण भरतीय प्रजा का विश्वास उनपर से क्रमशः उठने लगा। बौद्धधर्म के इस देश से एकबारगी उच्छिन्न होने का यह राजनैतिक कारण भी प्रतीत होता है। जैन मत के समान बौद्ध मत हिंदूधर्म का द्वेषी नहीं है, उसमें हिंदुओं की निंदा से भरे हुए पुराण आदि नहीं बल्कि स्यान स्थान पर प्राचीन ऋषियों और ब्राह्मणों की प्रसंशा है। पर जैन मत भारत में रह गया और बौद्धधर्म अपना संस्कार मात्र छोड़ सब दिन के लिए विदा हो गया।

मैंने इस उपन्यास के अंतिम भाग में कुछ परिवर्तन किया है। मूल लेखक ने हर्षवर्द्धन की चढ़ाई में शशांक की मृत्यु दिखा कर इस उपन्यास को दुःखांत बनाया है। पर जैसा कि सैन्यभीति के शिलालेख से स्पष्ट है शशांक मारे नहीं गए वे हर्ष की चढ़ाई के बहुत दिनों पीछे तक राज्य करते रहे । अतः मैंने शशांक को गुप्त वंश के गौरवरक्षक के रूप में दक्षिण में पहुँचा कर उनके निःस्वार्थ रूप का दिग्दर्शन